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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710
आईएसबीएन :9781613014288

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


निमाई बाबू हंस पड़े। बोले, “मूर्ख लड़के, कहीं पुलिस से ऐसी बात कही जाती है? तुमने अपने घर का क्या नम्बर बताया, तीस? हो सका तो कल आऊंगा। सामने की जेटी पर ही शायद यहां का स्टीमर खड़ा होता है। अच्छा, तुम्हारे ऑफिस का समय हो चुका है, नई नौकरी है। देर करना ठीक नहीं।” यह कहकर वह दूसरी ओर घूम गए।

अपूर्व ने कहा, “देर की क्यों, ऑफिस में गैरहाजिरी हो जाने पर मैं आपको छोडूंग़ा नहीं। मैं नहीं चाहता कि वह अब आपके हाथ पड़ जाएं, लेकिन यदि दुर्घटना हो भी जाए तो मैं एक बार उन्हें देख तो लूंगा, चलिए।”

इच्छा न होने पर भी निमाई बाबू ने विशेष आपत्ति नहीं की। केवल थोड़ा-सा सावधान करते हुए कहा, “देखने का लोभ होता है, मैं इसे अस्वीकार नहीं करता, लेकिन ऐसे लोगों से किसी प्रकार परिचय बढ़ाना भी भयानक है - यह जान लो अपूर्व? अब तुम लड़के नहीं हो। पिता जीवित नहीं हैं। भविष्य को भी सोचना चाहिए।”

अपूर्व हंसकर बोला, “परिचय का अवसर आप लोग किसी को देते कहां हैं चाचा जी! कोई अपराध नहीं, कोई अभियोग नहीं, फिर भी उनको जाल में फंसाने आप इतना दूर चले आए हैं।”

निमाई बाबू तनिक-सा मुस्करा पड़े। बोले, “यह तो कर्त्तव्य है।”

जिस समय दोनों जेटी पर पहुंचे, इस बड़ी नदी का विशाल स्टीमर किनारे लगने की वाला था। पांच-सात पुलिस अधिकारी, सादी पोशाक में पहले से ही खड़े थे। निमाई बाबू के प्रति उन लोगों की आंखों का एक प्रकार का संकेत देखकर अपूर्व उन्हें पहचान गया। वह सभी भारतीय थे। भारत के कल्याण के लिए सुदूर बर्मा में एक विद्रोही का शिकार करने आए हैं। शिकार की वस्तु लगभग हाथ आ चुकी है। सफलता का आनंद तथा उत्तेजना की प्रच्छन्न दीप्ति उनके चेहरे पर प्राप्त हो रही है।

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