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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710
आईएसबीएन :9781613014288

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपूर्व ने तनिक हंसकर कहा, “नहीं।” फिर रामदास को जिज्ञासु भाव से निहारते देखकर बोला, “ऊपर जो साहब रहते हैं वह मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे।”

रामदास ने विस्मित होकर पूछा, “वही लड़की तो नहीं?”

“जी हां, उसी के पिता,” इतना कहकर अपूर्व ने कल सांझ और आज सवेरे की घटनाएं सुना दीं। रामदास कुछ देर मौन रहने के बाद बोला, “मैं होता तो इतिहास दूसरा ही होता। बिना क्षमा मांगे वह इस दरवाजे से एक कदम भी नीचे न उतर पाता।”

अपूर्व ने कहा, “अगर वह क्षमा न मांगता तो आप क्या करते?”

रामदास ने कहा, “तो उतरने न देता।”

अपूर्व ने भले ही उसकी बातों पर विश्वास न किया हो, लेकिन साहस भरी बातों से उसे कुछ साहस अवश्य मिला। हंसते हुए बोला, “चलिए अब नीचे चलें। आपकी ट्रेन का समय हो गया है।” इतना कहकर मित्र का हाथ पकड़कर नीचे उतरने लगा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिस तरह आते समय उस लड़की से भेंट हुई थी उसी तरह जाते समय भी हो गई। उसके हाथ में कागज का एक मुड़ा हुआ बंडल था। शायद कुछ खरीदकर लौट रही थी। उसे रास्ता देने के लिए अपूर्व एक ओर हटकर खड़ा हो गया। लेकिन सहसा घबराकर देखा-रामदास रास्ता न देकर उसे रोके खड़ा है। वह अंग्रेजी में बोला, “क्षमा करना, मैं बाबू जी का मित्र हूं। इनके साथ अकारण किए गए दुर्व्यवहार के लिए आप लोगों को लज्जित होना चाहिए।”

लड़की ने आंख उठाकर क्रुद्ध स्वर में कहा, “इच्छा हो तो यह बातें आप मेरे पिता जी से कह सकते हैं।”

“आपके पिताजी घर पर हैं।”

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