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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

आचार्य नरेंद्रदेव की शतवार्षिकी मेरे शहर से कुल 70 किलोमीटर दूर ग्राम करोंदी में चंद्रशेखर के प्रधान पौरोहित्य में मनाई गई। डा. लोहिया ने पता लगाया था कि करोंदी गाँव भारत का केंद्र बिंदु है। यह समाजवादी आंदोलन का केंद्र बनाया जाएगा। यहीं समता विद्यालय होगा, आश्रम होगा, कार्यकर्ता रहेंगे। सन् 1967 में जब संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी तब मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह हुए। पर पार्टी में दबदबा भूतपूर्व ग्वालियर रानी विजयराजे सिंधिया का था। 1967 के पहले एक लोकसभा चुनाव में डा. लोहिया ने रानी के खिलाफ एक मेहतरानी को खड़ा किया था। 1967 में विजयराजे समाजवादियों की सहयोगिनी हो गई। गोविंद नारायण ने रिकार्ड कायम किया था। उन्होंने दो मंत्रिमंडल गिराए थे - एक तो द्वारका प्रसाद मिश्र का कांग्रेसी मंत्रिमंडल और दूसरा अपना खुद का मंत्रिमंडल। बाद में गोविंद नारायण सिंह बिहार के राज्यपाल बने और मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद से लड़ते रहे।

1967 में समाजवादियों ने करोंदी गाँव के समीप तेरह सौ एकड़ नजूल की जमीन समाजवादी आश्रम के लिए माँगी थी। गोविंद नारायण सिंह मामले को लटकाए रहे।

दो साल पहले चंद्रशेखर ने पैदल भारत यात्रा की थी। उनके साथ पदयात्री भी थे। शंकराचार्य ने भारत यात्रा करके चार मठ स्थापित किए थे। चंद्रशेखर ने भी 'पदयात्री ट्रस्ट' बनाया और चार आश्रमों की स्थापना करने का संकल्प किया-हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और कर्नाटक में। उन्हें 52 एकड़ जमीन भी करोंदी गाँव के पास मिल गई।

चंद्रशेखर महीने भर से नरेंद्रदेव के नाम से अपनी राजनैतिक ताकत बनाने के लिए समारोह की तैयारी कर रहे थे। पचास हजार कार्यकर्ताओं के ठहरने, खाने का इंतजाम करने की योजना बनी थी। विपक्ष के सब नेताओं को आमंत्रित किया गया था, मगर न हेगड़े आए न वी. पी. सिंह, न देवीलाल, न बहुगुणा, न जार्ज फर्नांडिस, न बीजू पटनायक, न शरद यादव, न रामधन। चंद्रशेखर और जनता दल के आपसी राग द्वेष के कारण आचार्य नरेंद्रदेव की स्मृति भी 'हास्यास्पद' हो गई। राजनैतिक मातम मना लिया गया। चंद्रशेखर से पूछा गया कि वे बड़े नेता क्यों नहीं आए? चंद्रशेखर का जवाब था - उन्हें बुलाया ही नहीं था। सच यह है कि जनता दल के सब नेताओं को बुलाया गया था।

राजनैतिक उपयोग नेहरू का भी कांग्रेस इस शतवार्षिकी साल में कर रही है। जलसे हो रहे हैं। आचार्य नरेंद्रदेव का राजनैतिक उपयोग कुछ राजनेता करें तो कोई बात नहीं। मगर इसे हास्यास्पद न बना दें।

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