ई-पुस्तकें >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
शेखर ने घूमकर देखा, और कहा-तुम आ गईं! अच्छा हुआ। आओ, अच्छी तरह सँवार-सिंगार दो, जिसमें बहू पसन्द कर, ले।
ललिता ने हँसकर कहा-''इस समय तो मुझे फुरसत नहीं है शेखर दादा, मैं तो यहाँ रुपये लेने आई हूँ।'' अब उसने तकिये के नीचे से चाभियों का गुच्छा उठाकर एक दराज खोली। गिनकर कुछ रुपये निकाले, उन्हें आँचल में बाँधा और जैसे अपने ही आप कहा-रुपये तो जब दरकार होते हैं तभी ले जाती हूँ, मगर यह देना अदा कैसे होगा? शेखर ब्रश से बाल सँवार रहा था। एक ओर के वालों को ब्रश से अच्छी तरह ऊपर की ओर फिराकर ललिता की ओर घूमकर उसने कहा-अदा होंगे, या हो रहे हैं?
ललिता इस उक्ति का कुछ अर्थ न समझ सकी, शेखर की ओर ताकती रह गई।
शेखर ने कहा- देख क्या रही हो? समझ में नहीं आया?
ललिता ने सिर हिलाकर कहा- नहीं।
''और तनिक सयानी हो लो, तब सब समझ सकोगी'' कहकर शेखर जूते पहनकर चल दिया।
रात को शेखर चुपचाप एक कोच के ऊपर लेटा हुआ था। माँ वहाँ आई तो वह चटपट उठ बैठा। माँ ने एक कुर्सी पर बैठकर पूछा-लड़की कैसी देख आया शेखर, कुछ बताया नहीं?
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