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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708
आईएसबीएन :9781613014653

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


ललिता उठकर खड़ी हो गई। शेखर के चेहरे का भाव देख वह तनिक शंकित होकर बोली- क्यों, क्या हुआ?

शेखर ने वैसी ही गम्भीर मुद्रा के साथ वैसा ही मुँह बनाये रहकर कहा - तुम क्या नहीं जानतीं? तो जाओ काली से पूछ आओ, आज की रात को गले में माला पहना देने से क्या होता है!

अब ललिता समझी। बिजली जिस तरह तेजी के साथ चमक जाती है उसी तरह शेखर के कथन का तात्पर्य हृदयंगम होते ही ललिता का मुखमण्डल भारी लज्जा के मारे लाल हो उठा। वह ''नहीं, नहीं, कभी नहीं--कभी नहीं'' कहती हुई तेजी के साथ वहाँ से चली गई।

शेखर ने पीछे से पुकारकर कहा- जाना नहीं ललिता- सुनती जाओ-बड़ा जरूरी काम है-'

शेखर की पुकार उसके कानों तक पहुँची जरूर, लेकिन सुने कौन? वह बींच में और कहीं नहीं ठहरी-दौड़ती हुई आकर अपनी कोठरी में घुस गई, और बिछौने पर आँखें मूँद कर लेट रही।

इधर पाँच-छ: साल से ललिता शेखर के घनिष्ठ संसर्ग में रहकर इतनी बड़ी हुई है; लेकिन कभी किसी दिन शेखर के मुँह से उसने ऐसी बात नहीं सुनी। एक तो गम्भीर स्वभाववाला शेखर कभी उससे हँसी-मजाक करता ही न था, और अगर करता भी तो ललिता इसकी कभी कल्पना तक नहीं कर सकती थी कि वह इतनी बड़ी लज्जा की बात हँसी में अपने मुँह से कह सकता है। लज्जा से सिकुड़कर 20 मिनट के लगभग पड़े रहकर वह उठ बैठी। इधर शेखर को वह मन ही मन डरती भी थी; उन्होंने कोई बहुत जरूरी काम है, यह कहकर बुलाया था, इसी बारे में ललिता सोच रही थी कि वहाँ जाऊँ या नहीं। उठकर बैठी सोच ही रही थी कि शेखर के घर की महरी का बोल सुन पड़ा- कहाँ हो जी ललिता दीदी, छोटे भैया तुम्हें बुला रहे हैं,-चलो।

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