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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708
आईएसबीएन :9781613014653

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।

‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है। गुरूचरण बैंक में क्लर्क थे। उन्हें जब पाँचवी कन्या होने का संवाद मिला तो एक गहरी सी ठंड़ी साँस लेने की ताकत भी उनमें नहीं रही। पिछले वर्ष दूसरी कन्या के विवाह में उन्हें पैतृक मकान तक गिरवी रखना पड़ा था। अनाथ भानजी ललिता उनके साथ रहती थी जिसकी आयु तेरह वर्ष हो गई थी, किन्तु उसके विवाह में खर्च करने के लिए गुरूचरण के पास तेरह पैसे तक नहीं थे। गुरूचरण के घर के बगल में नवीनचन्द्र राय रहते थे। उनका छोटा बेटा शेखर गुरूचरण के परिवार से बहुत आत्मीयता रखता था। ललिता आठ बरस की थी तभी से शेखर भैया के पास आती-जाती थी। शेखर से ललिता ने पढ़ना-लिखना सीखा तथा उनका हर काम वह बड़े जतन से करती थी। शेखर से पूछे बगैर ललिता का कोई काम नहीं होता था। शेखर के रूपये ललिता जब तब निःसंकोच काम में लेती रहती थी।

बचपन से ललिता को शेखर का जो अपार स्नेह मिलता रहा, वही बड़े होने पर एकनिष्ठ प्रेम में बदल जाता है। शेखर को यह दुश्चिन्ता बराबर रहती थी कि ललिता से ब्याह करने के लिए माता-पिता सम्मति नहीं देंगे ओर उसका अन्यत्र विवाह हो जाएगा। एक दिन जब अनायास ललिता उसके गले में माला डाल देती है तो शेखर वापिस उसे माला पहना कर अपनी परिणीता बना लेता है, जो किसी को मालूम नहीं होता।

परिणीता

1

छाती में शक्ति-बाण लगते समय लक्ष्मण के मुख का भाव सचमुच बहुत खराब हो गया था किंन्तु गुरुचरण का चेहरा, जान पड़ता है, उस समय उससे भी अधिक खराब देख पड़ा, अब बड़े सबेरे ही घर के भीतर से यह खबर उनको मिली कि उनकी पत्नी के अभी-बिना किसी विघ्न-बाधा के-पाँचवीं लड़की पैदा हुई है।

गुरुचरण एक बैंक के क्लर्क हैं। उनको महीने में साठ रुपये मिलते हैं। अतएव उनका शरीर जैसे किराये की गाड़ी के घोड़ों की तरह शुष्क-शीर्ण है, वैसे ही आँखों में और मुख पर उन्हीं का-सा निष्काम, निर्विकार, निर्लिप्त भाव विराजमान रहता है। तथापि इस भयंकर शुभ समाचार को सुनते ही आज उनके हाथ का हुक्का हाथ में ही रह गया। बे फटे-पुराने चिक्कट पुश्तैनी तकिये से पीठ लगाकर जैसे बैठे थे वैसे ही बैठे रह गये। मानों एक लम्बी साँस लेने की शक्ति भी उनमें नहीं रह गई।

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