ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'नहीं पापा, कल सायंकाल की गाड़ी ठीक रहेगी - एक-दो दिन तो पहले ही जाना चाहिए।'
'परंतु सायंकाल में जाना उचित नहीं - गाड़ी पूना रात गए पहुँचाती है।' 'तो क्या हुआ?'
'रात को अकेले वहाँ जाना ठीक नहीं - प्रातःकाल की गाड़ी से चली जाओ, दोपहर तक पहुँच जाओगी।'
बेला ने लाख बहाने बनाए। कभी तैयारी का, कभी बाजार से कुछ लाने का इत्यादि, पर पापा के सामने एक न चली और विवश होकर उसे प्रातःकाल की गाड़ी से ही जाना स्वीकार करना पड़ा। उसका मस्तिष्क इसी उलझन में था कि आनंद के संग जाने का कोई साधन बन जाए।
रात को जब बेला अपने कमरे में बैठी जाने के लिए वस्त्र संभाल रही थी तो धीरे से संध्या भीतर आई और एक पत्रिका ले अपने पलंग पर जा बैठी। कुछ क्षण की निस्तब्धता के पश्चात् बेला ने पुकारा-
'दीदी!'
'हूँ!' 'मुझसे रूठी हुई हो क्या!'
'नहीं तो।'
'फिर इतनी चुप क्यों हो?'
'उदास हो रही हूँ।' संध्या बनते हुए बोली।
'आनंद बाबू नहीं आए, इसलिए?'
'पगली! तुम्हारे मुँह में हर समय उन्हीं का नाम रहता है, मेरी उदासी का कारण वह नहीं, तुम हो।'
'मैं-क्यों?
'जा रही हो, मुझे अकेला छोड़ के।'
'अपना-अपना भाग्य दीदी, मैं तुमसे कई बार कह चुकी हूँ कि यह चुप्पी, यह बड़प्पन, यह लजीली दृष्टि, क्या रखा है इन सबमें, अपने जीवन को बचाने के लिए स्वयं साहस करना चाहिए, नहीं तो, नहीं तो-’
'नहीं तो, क्या?'
'अब तक तो तुम्हारा विवाह हो चुका होता।'
'तो ब्याह ही जीवन में एक ऐसी वस्तु है जो किसी को प्रसन्न रख सकती है।' 'क्यों नहीं - व्याह का दूसरा नाम है स्वतंत्रता।'
'अथवा पुरुषों की दासता।'
'यह केवल तुम जैसी संकोचशील देवियों के लिए। हम स्वतंत्र तितलियों के लिए नहीं।'
'बेला! क्या होस्टल में भी तुम सदैव ही नटखट थीं?'
'यह तो कुछ भी नहीं दीदी, वहाँ तो होस्टल की हीरोइन थी।'
'तभी जाने क्यों तुमसे भय लगता है।'
'भय! क्यों?'
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