ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
|
6 पाठकों को प्रिय 375 पाठक हैं |
गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
तीनों बैठक में आए। उसी समय रायसाहब, मालकिन और संध्या की छोटी बहन रेनु ने कमरे में प्रवेश किया। आनंद को देखते ही सब प्रसन्नता से खिल उठे। रेनु तो हाथ के खिलौने फेंक आनंद की टांगों से लिपट गई। आनंद ने उसे गोद में उठा लिया।
आश्चर्यचकित निशा से न रहा गया। उसने धीरे से संध्या को समीप खींचते हुए पूछा-'तो यह हैं वह श्रीमान!'
'हाँ री, क्यों कैसे लगे?'
'सो-सो' - कहते ही निशा साथ वाले कमरे में भाग गई। संध्या ने तीव्रता से उसका पीछा किया और उसकी कमर में चुटकी लेते हुए बोली-
'अब बोल, क्या कहा था तूने?'
'अरी, लड़ती क्यों है - कह जो दिया अच्छा, गुड - अब प्राण लेगी क्या। सच कहती हूँ वेरीगुड, ऐक्सीलेंट, वंडरफुल।'
'अब आई सीधे मार्ग पर' संध्या उसे छेड़ते हुए बोली।
'लाठी के भय से तो लोग दिन को रात कह डालते हैं।' कमर को सहलाते हुए निशा ने बड़बड़ाकर कहा।
संध्या फिर उसकी ओर लपकी, पर पापा की आवाज सुनकर रुक गई। सब उसी कमरे में आ पहुँचे। दोनों को वहाँ देखकर रायसाहब बोले-
'अरे, तुम अभी यहीं हो, मैंने जाना तुम चाय का प्रबंध कर रही हो। आज तो चाय भी बढ़िया बननी चाहिए. आनंद जो आया है। क्यों संध्या?'
'हाँ पापा, अभी तैयार हुई।' संध्या ने धीमे स्वर में कहा।
'ना पापा, आनंद साहब चाय तो निशदिन पी जाते हैं किंतु अपना वचन कभी पूरा नहीं करते।' रेनु ने मुँह बनाकर कहा।
'कहो तो कौन-सा वचन है?' आनंद ने प्यार से रेनु की ओर देखते हुए पूछा। 'नई मोटर का!'
'ओह! और यदि यह वचन अभी पूरा कर दें तो?'
'तो चाय के साथ मिठाई भी।'
'अच्छा तो बात से बदलना मत।'
'अजी. आपकी भांति झूठे नहीं हैं।' रेनु की इस बात पर सब हंस पड़े।
'तो लो, अपनी आँखें बंद करो जरा।'
जैसे ही रेनु ने अपनी आँखें मींचीं - आनंद ने सामने की खिड़की खोल दी। रेनु आँखें खोलकर उल्लास से चिल्लाई-'पापा-मोटर!' और तीव्रता से बाहर भागी।
सब खिड़की की ओर लपके और बाहर झांककर हल्के भूरे रंग की एक मोटर-गाड़ी को देखने लगे जो पिछवाड़े खड़ी थी।
थोड़े ही समय में घर का प्रत्येक व्यक्ति नई गाड़ी के पास इकट्ठा हो गया और हर कलपुर्जे का निरीक्षण होने लगा। संध्या और रेनु तो प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही थी।
|