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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


किन्तु उपेक्षा की जिस पिटारी में भुवन ने उसे डाल दिया था, उसे हठात् झकझोर कर रेखा बाहर निकल आयी थी। बैठक के दौरान भुवन ने दो बार उड़ती नज़र से रेखा के चेहरे पर क्लान्ति और खेद के चिह्न देखे थे; जब साहित्य-चर्चा ने ज़ोर पकड़ा और वातावरण में गर्मी आयी तो भुवन की दृष्टि कौतूहलवश फिर रेखा को खोजती हुई गयी और सहसा ठिठक गयी।

रेखा कमरे की ओर शून्य के एक छोटे से वृत्त के बीचोंबीच कुरसी पर बैठी थी। उसका सिर कुरसी की पीठ पर टिका था, पलकें बन्द थी। वह बिजली के प्रकाश से कुछ बच कर बैठी थी, अतः उसका माथा और आँखें अँधेरे में थी, बाकी चेहरे पर आड़ा प्रकाश पड़ रहा था जिससे नाक, ओठ और ठोड़ी की आकार-रेखा सुनहली हो उभर आयी थी। और इसी स्वर्णाभ निश्चलता पर भुवन का कौतूहल आकर टिक गया था।

कहते हैं कि आँखें आत्मा के झरोखे हैं। झरोखे बन्द भी हो सकते हैं, पर ओठों की कोर एक ऐसा सूचक है कि कभी चूकता नहीं; और इन्हीं की ओर भुवन अपलक देखता रहा। वह कुछ क्षणों की तन्द्रा मानो रेखा को उस कमरे से दूर अलग कहीं ले गयी थी, जहाँ ओठों के कोरों का कसाव, बिना तनिक-सा काँपे भी, जैसे अनजाने कुछ नरम पड़ गया था; मुँह के आसपास की असंख्य शिराओं का अदृश्य तनाव कुछ ढीला हो गया था और जीवन का अदम्य लचकीलापन जैसे फिर उभर कर एक स्निग्ध लहर बन गया था। जहाँ तक भुवन जान पाया, किसी और ने यह परिवर्तन नहीं लक्ष्य किया था; पर उस क्षण के सहज शैथिल्य के द्वारा मानो रेखा ने अपनी सारी क्लान्त शक्तियों को विश्राम देकर पुनरुद्दीपित कर लिया था। वैसे ही जैसे नास्तिकों की भीड़ में कोई भक्त अनदेखे क्षण-भर आँख बन्द करके अपने आराध्य का ध्यान कर ले और उसके द्वारा नये विश्वास से भर कर कर्म-रत हो जाये। रेखा जैसी आधुनिका के लिए भक्त की उपमा शायद ठीक न हो पर उस तुलना के द्वारा रेखा का पार्थक्य और उभर आता था, और यह बात बार-बार भुवन के सामने आती थी कि रेखा में एक दूरी है, एक अलगाव है, कि वह जिस समाज से घिरी है और जिस का केन्द्र है उससे अछूती भी है-यद्यपि कहाँ, अस्तित्व के कौन से स्तर पर विभाजन-रेखा है जो दोनों को अलग रखती है, इसकी कल्पना वह नहीं कर सकता था...

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