ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
उसी डाक में बंगलौर से पत्र आया कि उसका थीसिस स्वीकृत हुआ है और डाक्टरेट प्रदान करने का अनुमोदन किया गया है : अगले कन्वोकेशन में उसे डिगरी मिल जायेगी।
दक्षिण में ही गौरा ने पहले-पहल समझा कि कलाकार कैसे देश-काल के बन्धन से मुक्त हो जाता है : कोई भी लगन, कोई भी गहरी साधना व्यक्ति को इन बन्धनों से परे ले जाती है। देह का अपना धर्म है; उससे तो मुक्ति नहीं मिलती; पर आत्मा-या आत्मा की बात न करें क्योंकि उसके साथ तो अजर-अमर होने की प्रतिज्ञा ही है-मन भी जरा-मुक्त, चिर युवा रह जाता है : एक दिन साधक सहसा पाता है कि अरे, यह देह तो बूढ़ी हो गयी जबकि भीतर का जीव ज्यों-का-त्यों है, बल्कि अधिक स्फूर्तियुक्त, अधिक समर्थ...तब अगर वह मन को देह पर छोड़ देता है तभी मन भी जरा का अनुगत हो जाता है, नहीं तो अन्त तक-देह के विघटन-विलयन तक-भी वह वैसा ही अछूता चला जाएगा, ऐसा गौरा को लगता है। पढ़ाई के साथ-साथ भी वह संगीत-साधना करती रही थी, पर वहाँ वह गौण थी, अपने को उसमें बहा नहीं दिया जा सकता था, समर्पण नहीं हो सकता था : और साधना शर्तबन्द नहीं होती, वह आंशिक नहीं होती। या होती है, या नहीं होती...और अब...।
यों सम्पूर्ण साधक कम ही होते हैं। अधिकतर या तो सब समय अधूरा समर्पण, या कुछ समय पूरा समर्पण दे सकते हैं - सब समय पूरा समर्पण तो पागलपन है जो देवत्व का समकक्षी है, वह तो दुर्लभ है...। गौरा जानती है कि वह वैसी सम्पूर्ण साधिका-बल्कि वैसी सम्पूर्णता हो तो साधिका क्यों सिद्ध-नहीं है, और भीतर यह भी अनुभव करती है कि वैसी वह होना भी नहीं चाहती। पर जितनी साधना, या जितना शोध, जितनी तपश्चर्या उसे करनी है, वह सम्पूर्ण हो यह वह चाहती है, और इसके लिए कृतसंकल्प है। उसने पाया कि संगीत के अध्ययन के साथ संस्कृत का अध्ययन आवश्यक है, वह भी उसने आरम्भ कर दिया; फिर उसी से सम्बद्ध संस्कृत काव्यों का अध्ययन; इसमें उसने पाया कि संगीत अकेला नहीं खड़ा होता, उसे वास्तव में स्वायत्त करने के लिए थोड़ा इधर-उधर भी बढ़ना आवश्यक है; नाट्य-शास्त्र तक पहुँचते न पहुँचते उसने जान लिया कि दो वर्ष तो क्या होते हैं, उसे बीस वर्ष भी थोड़े हैं। पर व्यक्ति की कुछ सीमाएँ हैं जिन्हें वह मान ही लेना चाहती है : सम्पूर्ण साधक उन्हें अमान्य भी कर सकता, वह जानती है, और वैसी लगन के लिए जो कठोरता और एक विशेष प्रकार की आत्म-परता चाहिए उसे वह निरी स्वार्थ-परता नहीं कहेगी; पर उसे अभी वह इष्ट नहीं है, वह इन मर्यादाओं को स्वीकार ही कर लेगी...। दो वर्ष पूरे करके कहीं काम करना होगा। पिता-माता पर निर्भर करना अब उचित न होगा और काम के साथ-साथ ही संगीत-साधना आगे चलानी होगी।
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