ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
हमारा संस्कार है, हाँ; पर श्रवणकुमार का जो आदर्श है, वही-जरा-सी चूक पर!-हमारी सारी पीढ़ी की पराजय और क्लीवता का बड़ा अच्छा प्रतीक भी है। कन्धे पर लदी हुई बहँगी पितृभक्ति का, आदर्श-परायणता का, आत्म-बलिदान का प्रतीक नहीं; जड़-पूजा का, आत्म-प्रवंचना का, स्वाधीन जीवन की अपात्रता का प्रतीक है! श्रवण के लिए वह क्या था, इसका निर्णय करना मेरे लिए आवश्यक नहीं है; मेरी पीढ़ी के लिए वह क्या है यह मैं ठीक जानता हूँ।
तुम पर मुझे आस्था है। आत्म-बलिदान करती हो, तो मेरा श्रद्धापूर्ण प्रणाम लो। सच्चा बलिदान भी स्वाधीन व्यक्ति का कर्म है।
पत्र दोगी? मैं देखो कितने तपाक से पत्र लिख रहा हूँ!
भुवन
इसका उत्तर उसे बहुत दिनों तक नहीं मिला। पहले कुछ दिन उसने प्रतीक्षा की; फिर मान लिया कि गौरा ने विवाह की स्वीकृति दे दी है; और दे दी है तो भुवन को और लिखने को अभी क्या होगा? दो-चार मास बाद-या क्या जाने, विवाह के बाद!-ही वह लिखेगी। अवकाश आरम्भ हो गया, उसने सामान तैयार किया कि अगर गौरा बुलायेगी तो वहाँ, नहीं तो कुछ दिन के लिए पहाड़-वहाड़ कहीं चला जाएगा; पर चार-छः दिन ऐसे भी बीत गये। सहसा एक दिन मद्रास में गौरा का पत्र आया :
भुवन दा,
मैंने एक साथ कई निश्चय कर लिये। वह बात समाप्त हो गयी है। माँ बहुत रोयीं-धोयीं, पर मान लेंगी ऐसा विश्वास है। पिता ने भी यही कहा; बोले, “बेटी, हम दोनों तुम्हारा कल्याण चाहते हैं, यह विश्वास न खोना। तुम्हारी माता समझ जाएगी और हमारा पूरा विश्वास तुम पर बना है, यह मैं तुम्हें कहता हूँ।” और कुछ उनसे कहते नहीं बना। कहते तो शायद मैं न सह सकती।
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