ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“अच्छा देखिए, तय हो जाये।”
गौरा चली गयी तो चन्द्र ने कहा, “अब बताओ, कास्ट्यूम का क्या होगा?”
भुवन ने कहा, “तुम जानो; तुमने तो पहले से सोच रखा है न, पिछले साल से?”
“मैंने तुम्हारी इज्ज़त बचा ली है। अब...”
“ओह, तो इज्ज़त के बदले इज्ज़त चाहिए। लेकिन मैंने तो ऐसा सौदा नहीं किया?”
“मैं नहीं जानता; मैं तुम पर टाल दूँगा।”
दो-एक दिन चन्द्रमाधव कालेज जाकर गौरा और अन्य अभिनेताओं से मिल आया। इधर-उधर की कई बातें उसने की, पोशाक का प्रश्न उठने पर उसने कहा कि उसने अपने नोट सब भुवन को दे दिये हैं, उनसे पूरा निर्देश मिल जाएगा।
चन्द्रमाधव को स्टेशन छोड़ने भुवन के साथ गौरा भी गयी थी, उसकी दो-एक और सहपाठिनियाँ भी। चन्द्र ने कहा, “गौरा जी, आप के नाटक के कोई फ़ोटो लिये जायें तो एक-आध मुझे भी भेजिएगा, मुझे बहुत दिलचस्पी रहेगी।”
गौरा ने कहा, “मास्टर साहब अगर खिंचवा देंगे तो होंगे। तब आप उन्ही से मँगा भी लीजिएगा।”
चन्द्र नहीं समझ सका इसमें केवल भुवन के प्रति सहज सम्मान है, या भुवन को ही कोई अस्पष्ट उलाहना; या कि चन्द्र के आत्मीयता-प्रकाशन की ही परोक्ष अवहेलना-'आपका परिचय मुझसे नहीं, भुवन से है, उन्हीं की मारफत मैं...'। उसने कहा, “विलायत से मैं पत्र लिखूँ तो उत्तर देंगी न?” फिर गौरा के चेहरे को देख कर उसके कुछ उत्तर देने से पहले ही उसने जोड़ दिया, “मेरे मित्र बहुत थोड़े हैं; और भुवन मास्टर साहब तो शायद पत्र लिखना ही गवारा न करें; उनकी ओर से ही आप.....”
गौरा ने कहा, “अच्छा; मास्टर साहब को भी मैं कोंच दिया करूँगी।” और हँस दी।
“थैंक यू।”
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