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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

गौरा : भाग 1

1

गौरा से भुवन का परिचय यों तो चौदह-पन्द्रह वर्ष का गिना जा सकता है, जब वह पाँच-छः वर्ष की थी और दो चोटियाँ गूँथ कर फ़्राक पहने स्कूल जाया करती थी। वह चित्र भुवन को याद है, यह भी याद है कि कभी-कभी वह भुवन को खिझाने के लिए बड़ी तीखी किलकारी मारा करती थी। बच्चों को यों भी किलकारी मारने में आनन्द मिलता है; पर भुवन तीखी आवाज़ सह नहीं सकता यह जान कर ही वह उसके पास आकर किलकारती थी और भाग जाती थी; भुवन का सारा शरीर झनझना जाता था और वह दौड़ कर हँसती हुई गौरा को पकड़ कर उठा लेता और डराने के लिए उछाल देता था। डरकर गौरा और भी किलकती थी और उसके गले से चिपट जाती थी; उसके रूखे बालों की सोंधी गन्ध भुवन के नासा-पुटों में भर जाती थी, तब वह यह कह कर कि “ठहरो, तुम्हारे बाल सुलझा दें”, उसकी दोनों चोटियाँ पकड़ कर सिर के ऊपर गाँठ बाँध देता था और हँसता था। गौरा झल्लाती थी और फिर किलकारने की धमकी देती थी, पर भुवन 'सुलह' कर लेता था और गौरा उसे 'माफ़' कर देती थी। चोटियाँ सिर बाँधे उसका नयी धूप-सा खिला बाल-मुखड़ा भुवन को इतना सुन्दर जान पड़ता था कि वह प्रायः कहता, “तुम्हारा नाम जुगनू है; गौरा भी कोई नाम होता है भला?” और गौरा कहती, 'धत्! जुगनू तो सीली-सड़ी जगह में होते हैं!” या “गौरा तो देवी पार्वती का नाम है, हिमालय की चोटी पर रहती है वह।” भुवन कहता, “नहीं, गौरा सरस्वती का नाम है; वह उजली होती है और उजले कपड़े पहनती है। तुम तो-” फिर सहसा दुष्टता से भर कर, “हाँ, हिडिम्बा हो, हिडिम्बा!”

मगर वह तो बहुत पहले की बात है, उसके बाद कई वर्षों का अन्तराल था इसलिए उसे नहीं भी गिना जा सकता है। अतः कहना चाहिए कि परिचय आरम्भ हुआ 1932 में, जब उसने मैट्रिक के लिए जमकर तैयारी करनी शुरू की। भुवन तब नया-नया एम. एस-सी. कर चुका था, रिसर्च के लिए छात्र-वृत्ति मिलेगी या नहीं यह अनिश्चित था और वह कुछ छोटे-मोटे काम की ताक में था, जिससे मन भी लगा रहे और कुछ आय भी हो। आय की दृष्टि से तो गौरा को पढ़ाने का महत्त्व नहीं था। भुवन ने ही गौरा के पिता का वह प्रस्ताव टाल दिया था। पर मन लगाने के लिए यह अच्छा था; गौरा ने स्वयं उससे पढ़ने की बात उठायी थी और उसका कालेज का रेकार्ड तो उसकी पात्रता का प्रमाण था ही। भुवन ने उसे पढ़ाना आरम्भ कर दिया था, और आय के लिए एक आई.सी.एस. अधिकारी के बिगड़े हुए और पढ़ाई के प्रति उदासीन लड़के की ट्यूशन भी स्वीकार कर ली थी जिससे उसे सवा सौ मासिक मिल जाता था।

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