ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
फिर नये पैरा में उसने उसी रात देखे हुए फिल्म का वर्णन किया था। रेखा के चले जाने के बाद उसका जी नहीं लगा; मन बहलाने वह सिनेमा चला गया था। 'रेखा नहीं जानती है, पर उसके लखनऊ में बिताये हुए दिन चन्द्रमाधव के लिए एक सुनहली धूप के दिन होते हैं : उनकी मधुर गरमाई उसे देर तक अभिभूत किये रहती है पर साथ ही एक कसक भी छोड़ जाती है क्योंकि तुलना में और दिन फ़ीके और एक अजीब कुहासे से-निरालोक से जान पड़ते हैं।'
यहाँ पर पृष्ठ समाप्त करके चन्द्र कुछ देर रुक गया था। इतना भी उसने अटक-अटक कर लिखा था; इसके बाद उसने अपने सामने एक नया पन्ना रखा और थोड़ी देर लैम्प के छादन की ओर सूनी दृष्टि से ताकता हुआ बैठा रहा। आँत के बने हुए उस छादन पर एक काली छायाकृति अँकी हुई थी। दोनों हाथ ऊँचे उठाये एक नंगी स्त्री-आकृति, हाथों में कमल के आकार के फूल...अनमने से भाव से उसने लैम्प को घुमा दिया; दूसरी ओर वैसी ही एक आकृति घुटने टेके आगे को झुकी हुई थी। आगे बढ़े हुए हाथों में फूल थे; कुहनी और घुटनों के बीच में कुचों को कुछ अतिरिक्त प्रशस्तता मिल जाती थी-उनका नुकीलापन बाकी आकार की प्रवहमान गोलाई को एक नया लचकीलापन दे देता था। सहसा आगे झुककर चन्द्रमाधव ने जल्दी-जल्दी लिखना शुरू किया। बड़े डाकघर के घड़ियाल ने दो खड़काये तब वह उसे अभी लिख रहा था, कई पन्ने रंग कर उसने एक ओर को गिरा दिये थे। रुक कर उसने उन्हें सँवारा और अनुक्रम से रखा, फिर संख्या दी-3, 4, 5, 6...13, 14, 15। फिर पन्ना उलट कर उसने 16 लिखने को हाथ बढ़ाया और खींच लिया; सारे कागज़ एक साथ उठाये और दो-एक बार उलटे-पलटे, फिर सब फाड़ कर छोटी-छोटी चिन्दियाँ बना कर रद्दी की टोकरी में डाल दी और उठ कर टहलने लगा। थोड़ी देर बाद आकर उसने पहले के दो पन्ने उठाये और उन्हें शुरू से अन्त तक पढ़ डाला; बैठ कर फिर नया पन्ना लिया और दो-तीन पंक्तियाँ जोड़ कर पत्र समाप्त कर दिया। दोनों पत्र लिफ़ाफों में डाल कर बन्द किये, पते लिख कर मेज़ के एक कोने में रख दिये, ऊपर दाब के लिए आलपिनदान रख दिया। फिर वह टहलने लगा।
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