ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
चन्द्रमाधव का रेखा से परिचय पुराना था। रेखा के पति को भी वह थोड़ा जानता था; विवाह के कुछ समय बाद ही दोनों से उसकी पहले-पहल भेंट हुई थी। यद्यपि कोई घनिष्टता किसी से नहीं थी, तथापि तब से वह उनमें रेखा के पति का ही परिचित गिना जाता था, और उनके विच्छेद के बाद जब वह रेखा से मिला, तब पहले रेखा ने उससे पति के मित्र के अनुकूल ही व्यवहार किया था - शिष्ट, विनीत पर बिल्कुल असम्पृक्त और दूर। उनके विच्छेद की बात सहसा नहीं फैली थी, क्योंकि दोनों के दुराव को लोगों ने धीरे-धीरे ही जाना था। पति के मलय चले जाने के बाद भी लोग यही समझते रहे थे कि वह नौकरी के लिए ही गया है, और बहुधा रेखा से उसका हाल-चाल भी पूछ लेते थे। इतना ही अचम्भा उन्हें होता था कि वह पत्नी को साथ क्यों नहीं ले गया। पीछे जब रेखा ने अलग नौकरी कर ली, और यह भी खुल गया कि मलय में उसके पति के साथ कोई और स्त्री रहती है, तभी लोगों को उनके दुराव का पूरा पता लगा। और ऐसे में जैसे होता है, लोगों को पहले इसी बात का गुस्सा आया कि वे इतने दिनों तक भुलावे में ही क्यों रहे - या रखे गये। पति तो दूर चला गया था, रेखा पर यह गुस्सा भरपूर प्रकट हुआ। एक के बाद एक कई नौकरियाँ उसे छोड़नी पड़ी और उसके साथ-साथ यह भी बात बन चली कि वह कहीं टिकती नहीं, दो-चार महीने बाद काम छोड़ देती है, जिससे आगे नौकरी मिलने में क्रमशः कठिनाई बढ़ती गयी।
इसी बीच चन्द्रमाधव फिर से मिला था। उसकी स्थिति पर सहानुभूति प्रकट करके, कुछ शिकायत भी की थी कि रेखा ने उसे क्यों न याद किया, वह ज़रूर कुछ सहायता करता। रेखा ने सहज विस्मय से कुछ झिझकते हुए कहा था, “आप तो-उनके मित्र हैं; मैं समझती थी कि आप जानते होंगे - और आपसे सहानुभूति की आशा भी कैसे कर सकती थी?” चन्द्र इस बात से कट गया था, पर उसने प्रकट नहीं होने दिया था, और सहायता करने और काम दिलाने का वचन दिया था।
वह उसने किया भी था। कई जगह उसने बात की थी; फिर एक जगह नौकरी मिल भी गयी थी। चन्द्र बीच-बीच में आकर उससे मिल भी जाता था।
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