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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

उपसंहार


'वहाँ', 'बर्मा फ्रंट में कहीं पर', भौगोलिक अनिश्चितता की धुन्ध में खोकर भुवन जब-तब गौरा को छोटे-छोटे पत्र लिखता रहा था। लेकिन क्रमशः भौगोलिक अनिश्चितता के कृत्रिम वातावरण ने उसे छा लिया था, यह जानते हुए भी कि वह कहाँ है, वह मानो कहीं नहीं रहा था। फिर दो महीने तक उसने कोई पत्र नहीं लिखा।

लेकिन अक्टूबर 1942 में सहसा उसने पाया कि अपने बाँस के घर में वह बिलकुल अकेला है। बाँस के उन घरों का वह आदी था - कीचड़ में खड़ी बाँस की चटाई की दीवारें कीचड़ पर बिछी बाँस की चटाई का फ़र्श, बाँस की चटाई की टट्टियों से ढँकी खिड़कियाँ, बाँस की खाट पर बाँस की चटाइयों के पलंग, बाँस की चटाई से ढँके चौखटे की मेजें...। और जंगल में अकेलापन भी कोई नया अनुभव नहीं था - यों तो उस भीड़ में रहकर सभी अपने भीतर के अकेलेपन में खिंच जाने के आदी थे, पर उसके अलावा शारीरिक अकेलापन भी बहुधा हो जाता था। पर इस अकेलेपन में कुछ विशेष था। उसका घर जो उसका दफ़्तर भी था, वास्तव में तीन अफ़सरों का संयुक्त घर-दफ़्तर था, जंगल में औरों से अलग और कँटीले तारों से घिरा हुआ, वहाँ पर नाना प्रकार के रेडियो और विद्युत् यन्त्रों से घिरे हुए वे तीनों निरन्तर प्रयोग करते थे, अनुलेखों का संग्रह करते थे, और केन्द्रित रेडियो-रश्मियों द्वारा अदृश्य चीज़ों को पहचानने के नये आविष्कार को सम्पूर्ण सफल और व्यावहारिक बनाने के काम में योग देते थे। पर उस दिन सवेरे उसके दोनों साथी शिविर में गये थे और अब तक लौटे नहीं थे; उधर लड़ाई की आवाज़ भी उसने सुनी थी; निकट ही कहीं जापानी हैं यह ज्ञात था और आक्रमण की सम्भावना भी की जा रही थी। क्या हुआ? वह नहीं जानता था। क्या होगा, यह भी नहीं। सम्भव है, रात में उठकर उसे और कुछ दूर पर बने दूसरे वासे में रहने वाले आर्डरली-अफ़सर को एकाएक सब यन्त्र वगैरह विस्फोटक से उड़ाकर जंगल में निकल जाना पड़े, अकेले-अकेले; सम्भव है वह भी अवसर न मिले, पकड़े ही जायें; और - यह भी सम्भव है कि शाम को उसके साथी कुछ अच्छा समाचार लेकर लौट आवें, अख़बार और डाक ले आवें - अज़ब होता है युद्ध-मुख का भाई-चारा, जिसमें अज़नबी भी एक-दूसरे को अपने अन्तरंग पत्र सुनाते हैं।

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