ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
रेखा का स्वर भुवन स्पष्ट नहीं सुन सकता था और शब्द छूट जाते थे, पर कविता उसकी पढ़ी हुई थी और वह बिना पूरा सुने भी साथ गुनगुना सका; लेकिन रेखा के पढ़ने में कितनी एकात्मता थी उन पंक्तियों के आशय के साथ-मानो सचमुच ही भुवन देख सकता, वहाँ रेखा नहीं, घास की झूमती हुई पत्तियाँ हैं - पत्तियाँ भी नहीं, पानी में पड़ी हुई पत्तियों की परछाइयाँ...उसे और किसी कवि की कविता याद आयी जिसने कहा है, “सरोवर के पानी में झाँक कर जो घास और शैवाल देखता है वह भगवान का मुँह देखता है और जो अपनी परछाईं देखता है वह एक मूर्ख का मुँह देखता है-” और उसने सोचा, इस समय निस्सन्देह रेखा मूर्ख का मुँह नहीं देख रही है, यद्यपि भगवान का साक्षात् वह कर रही है या नहीं, यह...
ठीक इसी समय रेखा ने उसकी कुहनी पकड़ कर उसे ठेलते हुए कहा था, “अरे, आप की गाड़ी तो जा रही है” और उसने मुड़कर देखा था कि सचमुच पर उसका डिब्बा, जो पीछे था, अभी जहाँ वे खड़े थे वहाँ से गुज़रा नहीं था। उसने कहा था, “आप चिन्ता न करें।” और सवार हो गया था; कब रेखा ने उसकी कुहनी छोड़ी थी इसका उसे ठीक पता नहीं था - तत्काल ही, या जब उसने डिब्बे का हैंडल पकड़ कर तख्ते पर पैर रखा था और गाड़ी की गति ने उसे खींच लिया था तब; उसने यही देखा था कि रेखा का हाथ अभी वैसा ही ऊपर उठा हुआ है, उँगलियों की स्थिति वैसी ही अनिश्चित है जैसे किसी एक क्रिया के पूरी होने के बाद दूसरी क्रिया के आरम्भ होने से पहले होती है - संकल्प-शक्ति की उस जड़ अन्तरावस्था में।
और ठीक उसके बाद उसने सहसा जाना था कि वह भीतर कहीं विचलित है, और उसकी कुहनी चुनचुना रही है, और उसका हाथ उसका अपना अवयव नहीं है, और सब पर्याय विपर्यय हैं और आस-पास सब कुछ एक गोरखधन्धा है जिस का हल, कम-से-कम उस समय, उसे भूल गया है - और गोरखधन्धे का हल न जानने में उतनी छटपटाहट नहीं होती जितनी जानते हुए भी उस क्षण न पा सकने में...।
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