ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
6 अप्रैल सन् 1942 को भारत में पहला जापानी बम गिरा। गौरा उस दिन मसूरी में थी; समाचार मिलते ही उसने रेखा को पत्र लिखा; उसका कुशल-समाचार पूछा और यह सम्भावना प्रकट की कि रेखा का काम अब बहुत बढ़ जाएगा - क्या वह इतना परिश्रम कर सकेगी, और क्या उसका विदेश जाने का विचार अभी है कि बदल जाएगा? भुवन के बारे में भी उसने चिन्ता प्रकट की-भुवन न जाने कहाँ है, कैसी स्थिति में और कब लौटेगा या आगे क्या करेगा...पत्र उसने डाल दिया, फिर भुवन के बारे में चिन्ता ने सहसा उसे जकड़ लिया, उसने कुशल पूछने का तार लिखा और भेजने चली पर न जाने क्या सोचकर उसने तार नहीं दिया, एक-दो लाइन का पत्र ही लिखकर डाल दिया।
मद्रास पहुँच कर उसे मसूरी से लौटा हुआ भुवन का पत्र मिला। पत्र बहुत छोटा था, पर अभिप्राय-भरा, उसे पढ़कर गौरा बहुत देर तक सन्न बैठी रही, फिर उसने पत्र से ही आँखें ढँक कर दोनों हथेलियों से उसे आँखों और माथे पर दबा लिया।
भुवन ने सूचित किया था कि भारतीय भूमि पर जापानी बम पड़ने के बाद वह अपना कर्तव्य स्पष्ट देख रहा है : उसी दिन वह सेना में भरती हो रहा है। युद्ध घृण्य है, और कोरी देश-भक्ति भी उसके निकट कोई माने नहीं रखती बल्कि घृणा और युद्ध की जननी है, पर इस संकट से भारत की रक्षा करना देश-भक्ति से बड़े कर्तव्य की माँग है-वह मानव की बर्बरता से मानव के विवेक की रक्षा की माँग है; बर्बरता के सब साधन विज्ञान ने ही जुटाये हैं; अतः विज्ञान को यह सब बड़ी ललकार है : या तो वह अपनी शिवता, कल्याणमयता को प्रमाणित करे-या सदा के लिए नष्ट हो जाये।
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