ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने बिलकुल अचकचा कर कहा, “यह क्या गौरा-शिशुओं को प्रणाम करते हैं?” उसके हाथ का फूल छूटकर गौरा की पीठ पर गिरा।
“हाँ-देव-शिशु को प्रणाम ही करते हैं।” गौरा धीरे-धीरे उठी, उठते-उठते उसने एक हाथ पीछे मोड़कर पीठ पर गिरा फूल पकड़ लिया कि नीचे न गिरे, फिर उसे बालों में खोंस लिया।
तीसरे पहर की सर्विस से, पूर्व-निश्चय के अनुसार, भुवन नीचे चला गया, दूसरी तारीख को उसे कालेज पहुँचना था।
संगीत-शिक्षित गौरा अपने कालेज में सर्वप्रिय थी; पर मसूरी से लौटकर कालेज जाने पर मानो लोगों ने उसे नयी दृष्टि से देखा। “मसूरी आपको बहुत माफ़िक आयी है।” “मिस नाथ, आप कोई कम्प्लेक्शन क्रीम लगाती हैं-हमें भी बता दीजिए!” “मसूरी की हवा में कुछ जादू मालूम होता है।” इस प्रकार के बीसियों वाक्य उसे रोज़ सुनने पड़ते-अन्य अध्यापिकाओं से भी, छात्राओं से भी; कभी वह मन-ही-मन झल्ला उठती पर चेहरे पर एक सूक्ष्म अन्तर्मुखीन मुस्कराहट लिए वह अपने काम में लीन घूमती रहती, कुछ कहती नहीं; कभी इन बातों से वह थोड़ा-सा झेंप जाती और धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाने लगती; कभी एकान्त में बैठकर देर तक सितार या तबला भी बजाती रहती, उसकी यों ही ढीली रहने वाली कबरी खुल जाती और बाल कन्धे पर झूल जाते, एक-आध उड़कर माथे पर आ जाता या आँखों के नीचे कुण्डल बना देता और उसकी छवि और भी मनोहारिणी हो आती...अध्यापिकाओं में गौरा का कबरी-बन्धन पहले ही एक मज़ाक था : अध्यापिका, फिर युक्त प्रान्त की-बालों को कसकर, चिपका कर बाँधने का उनके निकट बहुत महत्त्व था और गौरा की इस महत्त्वपूर्ण विषय में इतनी उपेक्षा को वे सहज भाव से न ले पाती थीं। दो-एक मलाबारिनें भी ढीले बाल बाँधती थीं, पर वह दूर द्राविड़ देश है, और रामायण पढ़ने वाली महिलाओं के मन में अब चेतन रूप से यह बात तो रहती ही है कि विन्ध्य के पार सब जंगल है-और दूर दक्षिण में तो वनौकस रहते हैं, जानी बात है। लेकिन गौरा दक्षिणी नहीं है...पर छात्राओं को यह प्रकृत रूप अच्छा लगता, वे कभी मज़ाक भी करतीं तो प्रीति-भाव से।
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