ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
बड़ा दिन...गौरा भुवन को नाश्ते के लिए ऊपर ले गयी; नाश्ते के बाद सब लोग टहलने निकले। अधिक नहीं घूमे, शाम को दुबारा घूमने जाने की ठहरी। लौटकर गौरा के पिता बरामदे में आराम-कुरसी पर लेट गये और भुवन उनके पास बैठा बातें करता रहा। दोपहर का भोजन हुआ, उसके बाद पिता फिर उसी कुरसी पर बैठकर तिपाई पर पैर फैला कर ऊँघते रहे; गौरा से यह संकेत पाकर कि 'लंच के बाद पापा आराम करेंगे', भुवन अपने कमरे में चला गया। बड़े दिन को कभी विशेष महत्त्व उसने नहीं दिया था, पर गौरा की बात का असर उस पर था, बैठकर उसने चन्द्रमाधव को एक छोटी-सी चिट्ठी लिख डाली; फिर रेखा को भी एक, और अपने कालेज को भी दो-एक; फिर रात के जागरण के कारण उसे भी ऊँघ आने लगी और वह सो गया। दो-ढाई घंटे की नींद के बाद कोई पाँच बजे जब वह उठा, तो गौरा के कमरे से सितार के बहुत हलके स्वर आ रहे थे। उसका मन हुआ, अगर वह गा सकता...पर नहीं, गाता तो शायद कुछ उदास गान ही गाता, और गान को उदास होना हो तो मौन ही क्या बुरा है? वह अलसाया-सा लेटा सुनता रहा; सितार के तार झनझना भी देते हैं, पर विचलित भी नहीं करते, जैसे किसी सोये को कोई थपकी दे-देकर उद्बोधन करे...
सितार बन्द हो गया, उसके दो-चार मिनट बाद गौरा चाय का ट्रे लिए उसके कमरे में प्रविष्ट हुई। ट्रे रखते हुए बोली, “सोये?”
“हाँ, खूब। तुम?”
“थोड़ा। दिन में सो नहीं पाती - जाड़ों में।”
“रात तो सोयी थीं - जागकर क्या करती रहीं?”
“और रतजगा थोड़े ही करती?” गौरा ने टाला।
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