ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन खड़ा मुस्कराता रहा। गौरा ने पास आकर आँख भरकर उसे देखा, फिर बोली, “अच्छा मैं जाती हूँ - तुम सो जाना अभी, हाँ?”
भुवन ने धीरे से सिर हिलाया, “हाँ।”
गौरा ने सहसा खिलकर कहा, “बच्चे हो तुम भी - बिलकुल शिशु! अच्छा, अब से तुम्हें यही कहूँगी-बड़े-बड़े वैज्ञानिक नामों से डर लगता है।”
वह चल पड़ी। किवाड़ खोलकर आधी बाहर जाते-जाते मुड़कर शरारत से बोली, “शिशु?” और चली गयी, पीछे उसने भुवन का स्वर सुना, “जुगनू।”
भुवन सोकर देर से उठा, नींद खुलने के साथ ही एक वाक्य उसके मन में गूँज गया : “शब्द अधूरे हैं - क्योंकि उच्चारण माँगते हैं, मैं कह नहीं सकती थी, पर लिख सकती थी चाहती तो।” और सहसा उसकी सब इन्द्रियों की चेतना सजग हो आयी, सबसे दीर्घ-सूची घ्राणेन्द्रिय की भी, उसके नासा-पुटों में चीड़ के धुएँ और नरगिस के फूलों की मिश्रित गन्ध भर गयी और उसने जैसे उसमें दोनों गन्धों को अलग-अलग पहचान लिया।
“यह आग तो तुम्हारी आग है।” और यह गन्ध? यह गन्ध? भुवन अकुलाया-सा उठा, जल्दी से उसने मुँह-हाथ धोया और ड्रेसिंग गाउन लपेटकर फिर पलंग के सिरे पर बैठ गया।
क्यों उसने गौरा को बाध्य किया था बोलने को? अपनी बात वह कहना चाहता था, उसे कहनी चाहिए थी, उससे वह भार-मुक्त भी हुआ, वह ठीक था-पर गौरा से क्यों उसने कहलवाया जो कहला कर छोड़ नहीं दिया जा सकता - कुछ कर्म माँगता है?
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