ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने कहा, “रेखा जी, आपने जिसे अनावश्यक शिष्टाचार कहा था, यह बात भी क्या उसी के अन्तर्गत नहीं आती?”
अगला स्टेशन प्रतापगढ़ था। यहाँ तो दस-बारह मिनट गाड़ी ठहरेगी। भुवन लपक कर पहुँचा कि सामान उतरवा दे; पर यहाँ तक आते डिब्बे की सब सवारियों पर ऐसी शिथिलता छा गयी थी कि सब अपने-अपने स्थान पर पोटलियों-सी पड़ी थीं, और ऊपर की बर्थ से सामान उतार लेने में कोई अड़चन या झिझक नहीं हो सकती थी। भुवन के पहुँचने तक रेखा ने सामान उतार लिया था, एक कुली भी आ गया था।
रेखा ने कहा, “इस स्टेशन पर तो आपके न आने की बात थी?”
“न आता तो आप 'मिस' न करतीं, यह जानता हूँ; समझ लीजिए कि यह भी फालतू शिष्टाचार है।”
“जो आप अपने सौजन्य के साथ रंगे दे रहे हैं।” रेखा हँसी।
कुली ने सामान उठा लिया था। रेखा ने कहा, “वेटिंग-रूम में ले चलो, हम आते हैं।” कुली चला गया।
भुवन ने कहा, “रेखा जी, आप से भेंट करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मेरा लखनऊ का प्रवास बड़ा सुखद रहा। इस बात को आप शिष्टाचार ही न मानें।” फिर तनिक-सा रुक कर, “सुखद शायद ठीक शब्द नहीं है किन्तु ठीक शब्द तत्काल मिल नहीं रहा है, सोच कर शायद ढूँढ निकालूँ।”
रेखा ने गम्भीर होकर कहा, “भुवनजी, मैं भी आप की कृतज्ञ हूँ। आपने इस वापसी की यात्रा को भी प्रीतिकर बना दिया। बल्कि मैं सोचती हूँ, यह यात्रा कुछ और लम्बी हो सकती थी।” फिर कुछ मुस्करा कर, “बात-चीत का यह इंटरमिटेंट तरीका कुछ बुरा नहीं है - ये बीच-बीच के ब्रेक अपने-आपमें एक तटस्थता दे देने वाले हैं, फिर चाहे बात-चीत कोई कैसी ही करे। मैं सोचती हूँ मुझे कभी ईसाइयों की तरह कनफ़ेशन करना हो तो गिरजा में जाकर नहीं, रेलगाड़ी में ही करूँ।”
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