ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
लेकिन मैं बहुत बक रही हूँ - अपने बारे में बहुत बातें कर रही हूँ! भुवन, एक बार जड़ता की सीमा को छू आकर ही जीवन वास्तव में शुरू होता है; मुझे लगता है कि तुम भी उस अवस्था में से गुज़र रहे हो...एक बार अपने को मर जाने दो-अपनी ही राख में से फिर तुम उदित होगे-परिशुद्ध होकर, कान्तिवान्...
यह सब तुम्हें दम्भोक्ति या प्रलाप लगे तो ध्यान कर लेना कि मैं नर्सिंग होम की आराम-कुर्सी से लिख रही हूँ-ए जैबरिंग ओल्ड सिक हैग!* (* एक बड़बड़ाती हुई बीमार बुढ़िया!)
मेरा हार्दिक स्नेह लो।
भुवन,
तुम्हारी चिट्ठी मिली है। मैं कृतज्ञ हूँ। शायद सात महीने बाद तुम्हारी यह चिट्ठी है, लेकिन इसे पढ़कर मुझे लगा कि हम दोनों की मानसिक प्रगति लगभग समान्तर होती रही है। फिर मैंने तुम्हारे पिछले दो-चार पत्र भी निकाल कर पढ़े, और उससे यह भावना और भी पुष्ट हो गयी। समान सोचते हैं तो दूर नहीं हैं; इतना ही नहीं, मुझमें जो परिवर्तन-ठीक परिवर्तन वह नहीं है, विकास, प्रस्फुटन, भीतरी और घटना-जन्य सम्भावनाओं का स्फुरण-हो रहा है उसे लक्ष्य करके तुम्हारे बारे में आश्वस्त भी हो सकती हूँ...मैंने एक बार प्रतिज्ञा करनी चाही थी कि अपने कारण तुम्हारा कोई अहित नहीं होने दूँगी; फिर सहसा इस डर से रुक गयी थी कि क्या जाने, चाह कर भी इसे निभा पाऊँगी कि नहीं; इसलिए यही शपथ ली थी कि जहाँ तक हो सकेगा नहीं होने दूँगी...।
अब जानती हूँ कि वह प्रतिज्ञा शायद टूटी नहीं - अहित बिलकुल नहीं हुआ यह तो नहीं कह सकती, पर जहाँ तक सकी-नहीं, जितना हुआ, उसे घातक होने से शायद बचा सकी हूँ और मेरी आशाएँ तुममें जी सकेंगी, सुफल हो सकेंगी...।
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