ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
रेखा, मैं देश छोड़ कर जा रहा हूँ। एक और एक्सपेडीशन डच इंडीज़ में जा रहा है, उसी में जा रहा हूँ। एक वैज्ञानिक अमेरिका से जावा पहुँच रहे हैं - वह भी भारतवासी ही हैं वैसे - और मैं यहाँ से जावा जाऊँगा। वह तो अप्रैल में पहुँचेंगे, पर मैं पहले ही जा रहा हूँ कि वहाँ कुछ आरम्भिक प्रबन्ध कर रखूँ। कालेज से अभी एक वर्ष की छुट्टी ले ली है और होली की छुट्टी लगते ही चल दूँगा - सात-आठ दिन तैयारी के लिए काफ़ी हैं। परीक्षार्थियों की पढ़ाई तो अब तक लगभग पूरी हो ही जाती है इसलिए कालेज के काम में कोई व्यतिक्रम नहीं होगा।
जहाज कलकत्ते से पकडूँगा। पहले सोचा था कोलम्बो जाऊँ - रामेश्वरम् होते हुए जाने का मोह था - पर क्या होगा उससे रेखा...।
तुम्हें क्या कहूँ, रेखा? तुम्हारे जीवन की खोज पूरी हो - उसे सार्थकता मिले...।
पुनश्च :
फागुन की अष्टमी का धूमिल चाँद देखकर न जाने क्यों लारेंस की कविताएँ निकाल लाया; उसमें से एक कविता यह भेज रहा हूँ :
हाइ एण्ड स्मालर ग्रोज़ द मून ,
शी इज़ स्माल एण्ड वेरी फ़ार फ्राम मी,
विस्टफुल एण्ड कैडिड,
वाचिंग मी विस्टफुली फ्राम हर डिस्टैंस,
एण्ड आइ सी टेंब्लिंग ब्लू इन हर पैलर
ए टीयर दैट शोरली आइ हैव सीन बिफ़ोर,
ए टीयर ह्विवच आइ हैड होप्ड
ईवन हेल हेल्ड नाट अगेन इन स्टोर।
(चाँद ऊँचा और छोटा होता जाता है : ऊँचा और मुझसे बहुत दूर , उदास और स्पष्टवादी, अपनी दूरी से उदास-भाव से मुझे देखता हुआ। और उसके पीलेपन में नीला काँपता हुआ मैं देखता हूँ एक आँसू जिसे मैंने निश्चय ही पहले देखा है और जो मैंने आशा की थी कि नरक में भी फिर देखने को न मिलेगा! -डी. एच. लारेंस)
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