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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


पर नहीं भुवन दा, आपकी शान्ति भंग नहीं करूँगी; सच कहती हूँ। आप मुझे कुछ दिन के लिए आ जाने दीजिए। कहती कि आप बुलाइये, पर उतना मान मेरा नहीं है।

आप ही की
गौरा


गौरा द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा दीदी,
मेरा पत्र पाकर आपको विस्मय हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है; मैं शायद न लिखती। लिख रही हूँ तो इसलिए कि और एक चिट्ठी लिखने से बच जाऊँ।

चन्द्रमाधव जी का एक पत्र मिला है। उसमें उन्होंने अपने बम्बई जाने की बात लिखी है, और साथ ही आपके बारे में कुछ सूचना दी है। यों किसी की निजी बातों में हस्तक्षेप करते बड़ी झिझक होती है और विशेष कर आपकी, क्योंकि आपके जीवन के बारे में कुछ न जानकर भी मैं इतना जानती हूँ कि आपने बहुत सहा है और आपकी कोई भी निजी बात निजी कष्ट की ही बात होगी-फिर भी यह कहने की अनुमति चाहती हूँ कि चन्द्रमाधव जी की सूचना से शान्ति मिली, और मैं आशा करती हूँ कि आपको भी मिलेगी-अभी भी और भविष्य में भी छोटे आशीर्वाद नहीं देते, इसे मेरी प्रार्थना समझ लीजिए कि आपका जीवन शान्तिमय हो, कल्याणमय हो।

आपको यह पत्र लिखकर मैं मान लूँगी कि चन्द्रमाधव जी के पत्र का डिस्पोज़ल हो गया, उन्हें अब उत्तर न दूँगी।

दो महीने हुए, भुवन दा के एक पत्र से ज्ञात हुआ था कि आप पहले बहुत अस्वस्थ रही; आशा है अब आप पूर्ण स्वस्थ हैं। उसके बाद भुवन दा का पत्र नहीं आया, पर मुझे वह पत्र शायद ही कभी लिखते हैं। यों वह ठीक ही हैं, यद्यपि उद्विग्न रहते हैं।

रेखा दीदी, मेरे पत्र से नाराज़ तो नहीं होंगी न?

स्नेहाकांक्षिणी
गौरा

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