ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन द्वारा रेखा को :
रेखा,
तुम्हें पत्र लिखने की कई कोशिशें की पर अभी तक पत्र न लिखा गया, और अब मैंने मान लिया है कि जो पत्र लिखना चाहता हूँ, वह कभी नहीं लिखा जाएगा। इसलिए लिखने की पिछली अधूरी कोशिश ही अन्तिम कोशिश मान कर वह अधूरा पत्र ही तुम्हें भेज रहा हूँ। और उसे भी फिर पढ़ूँगा नहीं, नहीं तो शायद भेजूँगा नहीं। तुम्हारे सब पत्र मुझे मिल रहे हैं; प्रत्येक पर अपने को और अधिक कोसता रहा हूँ कि तुम्हें क्यों इतना क्लेश पहुँचा रहा हूँ, फिर भी इससे पहले नहीं लिख पाया हूँ, नहीं पाया हूँ। अब भी पाया ही हूँ, यह तो नहीं है, और कदाचित् यह पत्र भेजना भी उतना ही क्रूरता है जितना पत्र न लिखना - मैं नहीं जानता, रेखा। तुम मुझे क्षमा कर देना यह सोचकर कि मैं इस समय भ्रान्त हूँ।
भुवन
भुवन द्वारा रेखा को :
रेखा,
तुम्हारा पत्र पाकर थोड़ी देर विमूढ़-सा सोचता रह गया-क्या सचमुच चार महीने हो गये दिल्ली स्टेशन पर तुम्हें ट्रेन में बिठाये हुए और उसके बाद तुम्हें पत्र लिखे हुए? पर तुम्हारी गणना ठीक है...यों अभी दो-एक दिन पहले मैंने तुम्हें चिट्ठी डाली है-अब तक तुम्हें मिल गयी होगी।
तो विवाह रद्द हो गया या हो जाएगा। यह बात अपने को कहता हूँ, तो सहसा कुछ स्पष्ट नहीं होता है कि क्या हो गया। क्योंकि किसी चीज़ के होने में, और उस होने के हमारे बोध में, हमेशा ही एक अन्तराल रहता है; यह इतनी बार लक्ष्य करता हूँ कि किसे वास्तव में होना माना जाये यही सन्देह हो आता है। फिर तलाक तो एक कानूनी कार्रवाई है और कानून हमारे जीवन की जीवित यथार्थता कभी होता है तो तभी जब हम उसे तोड़ते हैं या तोड़ने की सज़ा पाते हैं, नहीं तो उससे हमें कोई सरोकार ही नहीं होता। फिर यह भी ध्यान आता है कि यही अगर पहले हुआ होता-समय पर हुआ होता-तो तुम्हारा जीवन कितना भिन्न होता। सहसा हार्डी की बात याद आती है, कि 'जब पुकार होती है तब आगन्तुक नहीं आता', और एक तीखा आक्रोश मन में उमड़ आता है...
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