लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


मैंने कहा कि 'जब कभी'। यह नहीं कि वैसा कभी-कभी होता है। मैं बराबर ही वैसे खण्डित स्वप्न देखता रहता हूँ; जागते हुए, काम के बीच में, क्लास में पढ़ाते हुए, लैबोरेटरी में काम करते हुए, राह चलते सड़क के बीच में बराबर ही ये स्वप्न-चित्र कौंध कर सामने आते रहते हैं। मानो आँखों के आगे हर वक़्त एक काल्पनिक चौखटा बना रहता है, जिसके भीतर का चित्र बराबर बदलता रहता है। बल्कि अधिक बदलता भी नहीं, क्योंकि बार-बार एक ही दारुण दृश्य सामने आता है, और मैं सुनता हूँ तुम्हारी दर्द-भरी आवाज़ मुझे पुकारती हुई, 'प्राण, जान, जान', अन्तहीन आवृत्ति करती हुई एक कराह, जिसे वर्षा की वह अनवरत टपटपाहट भी नहीं डुबा पाती जो कि उस स्मृति का एक अभिन्न अंग है। मैंने तब तुम्हें कहा था 'हाँ अब भी, अब और भी अधिक' वह ग़लत नहीं कहा था और आज भी अनुभव करता हूँ कि वे क्षण आत्म-दान के-अपने से मुक्त होकर अर्पित हो जाने के तीव्रतम क्षण थे; पर आज यह भी देखता हूँ कि ठीक उन्हीं क्षणों में मेरे भीतर कुछ टूट गया। टूट गया, मर गया। क्या, यह नहीं जानता। प्यार तो नहीं, प्यार कदापि नहीं, उससे सम्बद्ध कोई जादू, कोई आवेश, जिससे आविष्ट होकर मैं प्यार की मर्यादा भूल गया था, जो प्रेय है उसे स्वायत्त करना चाहने लगा था ऐसे जैसे वह स्वायत्त नहीं हो सकता... और मानसिक यन्त्रणा के उस चरम क्षण में यद्यपि प्यार-प्यार, रेखा, करुणा नहीं-अपने उत्कर्ष पर था, पर उसी क्षण में जैसे मैंने तुम्हें दोषी भी मान लिया था एक मूल्यवान् वस्तु को नष्ट हो जाने देने का। तुमने लिखा था कि यदि वैसा न हुआ होता और प्रेम ही मर गया होता या मैंने तुम्हें छोड़ दिया होता तब क्या होता, और इस प्रश्न का मेरे पास कोई जवाब नहीं है - ऐसा हुआ होता तो निस्सन्देह वह भी घोर दुर्घटना हुई होती - और जो बार-बार मेरे आस-पास होता रहा है, होता है, इसे मैं किस दर्प से असम्भव करार दे दूँ? वह ख़तरा तो था ही...भविष्य के बारे में कोई दावा करना बेमानी है, फिर उस भविष्य के जिसकी अब कोई सम्भावना नहीं रही। लेकिन आज भी मैं कितना भी कठोर होकर सोचूँ तो मानता हूँ कि उस अजात के कारण जो भी ज़िम्मेदारी मुझ पर आती उससे मैं भाग नहीं रहा था, भागने का विचार भी मुझमें नहीं था, और उसे स्वीकार करने में मुझे खुशी ही होती...मैंने तुमसे कहा था कि मैं सुखी होता, आज भी मानता हूँ कि सुखी होता। प्यार मर तो सकता ही है-एक अर्थ में चिरन्तन होकर भी वह मर सकता है, पर अगर भविष्य में कभी ऐसा होता ही, तो वह कम-से-कम उस शिशु के कारण न होता-उसके कारण हमीं में होते।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai