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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चन्द्रमाधव द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,
उस बार आप दिल्ली से अचानक गायब हो गयीं, तब से बहुत दिनों तक कोई पता ही नहीं मिला; फिर मालूम हुआ कि आप कश्मीर में हैं और बहुत बीमार रही हैं, कुछ आपरेशन की भी बात सुनी पर ठीक पता न लगा कि क्या हुआ, कैसी हैं? पता लगा तो यही कि कलकत्ते चली गयी हैं जिससे मैंने मान लिया कि स्वस्थ ही होंगी। यह भी पता लगा था कि भुवन भी शुश्रूषा के लिए गये थे; सोचा था कि उनसे ही पूरे हालात पूछूँ पर फिर उन्हें कष्ट देने का साहस नहीं हुआ। सुना है कि वह आज-कल अपनी ख़ोज में ऐसे डूबे हैं कि किसी को पत्र-वत्र नहीं लिखते; बल्कि शायद आयी हुई डाक भी नहीं पढ़ते-किसी से कोई मतलब उन्हें नहीं है, बस वह हैं और कास्मिक रश्मियाँ हैं। वैज्ञानिक में अनासक्ति की यही तो खूबी होती है : न जाने कहाँ से वे कास्मिक रश्मियाँ आती हैं, पृथ्वी के वायुमण्डल की परिसीमा से या सूर्य से, या तारा-लोक से या सर्वत्र फैले शून्य में पदार्थ मात्र के बनने-मिटने से-पर वैज्ञानिक का सारा लगाव उनसे है, और अपने आसपास की किसी चीज़ का होश नहीं, उनका भी नहीं जिन्हें वह प्रिय बताना चाहता है...ठीक कहते हैं लोग, कि वैज्ञानिक प्रेम कर ही नहीं सकता; क्योंकि उसके लिए स्थूल यथार्थ है ही नहीं, सब-कुछ एक एब्स्ट्रैक्शन है, एक उद्भावना...और जहाँ एब्स्ट्रैक्शन है, वहाँ प्यार कहाँ? हम लाल को चाह सकते हैं, हरे को चाह सकते हैं पर लाल-पन या हरे-पन की भावना को कैसे? प्रकाश को चाह सकते हैं, प्रकाशित होने के गुण को कैसे?

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