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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा द्वारा भुवन को :

एक ज़माना था जब मैं स्त्रियों को ऐसे समय का हिसाब रखते देखकर हँसती कि अमुक घटना 'अमुक बेटे या बेटी के जन्म से तीन मास पहले' हुई थी, या कि 'जब अमुक एक वर्ष का था' या 'जिस साल अमुक की लड़की की शादी हुई... और आज मैं स्वयं हिसाब लगा रही हूँ, तुमसे पहली भेंट से दस महीने बाद, तुलियन से आठ महीने बाद, और तुम्हें अन्तिम बार देखा तब से चार महीने...कैसे मानव अपने सारे जगत् को अपने छोटे-से जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं के आस-पास जमा लेता है, और विराट् का समूचा सत्य उस निजी छोटे-से सत्य का सापेक्ष्य हो जाता है! लेकिन वह निजी छोटा सत्य छोटा क्यों है? विराट् असीम को दिखाने वाली मेरी खिड़की-वह लाख छोटी हो, एक तो मेरी है, दूसरे मेरे लिए विराट् को बाँधे हुए है, विराट् का चौखटा है...सोचते-सोचते यह ध्यान आता है, यह झरोखे से देखना गलत है, यह अपने को विराट् से अलग रखकर देखना है, उसे बाहर मान लेना; मुझे चाहिए कि उसमें लय हो जाऊँ...घर से बाहर निकलूँ, अपनी अनुभूति के पिंजरे से बाहर निकलूँ और विराट् के प्रति अपने को सौंप दूँ, उसी की हो जाऊँ - उसको झरोखे से न देखकर स्वयं उसका झरोखा हो जाऊँ... पर क्या यह भी निरा शब्द-जाल नहीं है, घूम-फिर कर अपने तक लौट आना नहीं है?

तुम्हें देखे हुए चार महीने - तुमसे बिछुड़े हुए चार महीने - तुम्हारी ओर से कोई पत्र, सूचना, संकेत पाये हुए चार महीने...विश्वास नहीं होता। लेकिन फिर सोचती हूँ, शायद अवचेतन मन में मैंने इसे स्वीकार ही कर लिया है, तभी तो मैं काल-गणना इस ढंग से करने लगी हूँ। क्योंकि हम केवल निजी के सहारे नहीं देखते, उस निजी को अपेक्षा में देखते हैं जो हमारे जीवन में महत्त्व का था लेकिन जो था, यानी अब नहीं है, यानी जिसका बीत जाना, बीत गया होना हमने स्वीकार कर लिया है...”जिस साल मेरा ब्याह हुआ', इस गणना का कारण एक तो वह सुख है जिसे प्रकारान्तर से याद किया जा रहा है; दूसरा यह है कि वह सुख आज दूर चला गया है क्योंकि अगर आज भी निकट और सजीव होता तो उसकी बात हम न कर सकते...।

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