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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

अन्तराल : भाग 2

1

रेखा द्वारा भुवन को :

वहाँ फूल थे, सुहानी शारदीया धूप थी, और तुम थे! और मेरा दर्द था! यहाँ गरम, उद्गन्ध, बौखलायी हुई हरियाली है, धूप से देह चुनचुना उठती है - और तुम नहीं हो। और दर्द की बजाय एक सूनापन है जिसे मैं शान्ति मान लेती हूँ...।

नदी यहाँ भी है, किनारे बनी हुई पक्की रौंस पर दो-तीन सरुओं की ओट में-जो ऐसे बने-ठने रहते हैं कि नकली मालूम हों (और क्या यह समूचा बगीचा ही नकली नहीं है-नकली इटालियन बगीचे की नकल!) मैं बैठकर दिन बिता देती हूँ। सामने दक्षिणेश्वर का मन्दिर दीखता है, और घास; उस पार और मेरी रौंस के बीच में गहरी लाल या कभी काली धारीदार सफ़ेद धोतियाँ पहने बंगालिनें आती हैं, नहाने, पानी भरने, कभी झगड़ने; उनके दुबले कमज़ोर शरीर ऐसे लचकते हुए चलते हैं कि जान पड़ता है उन्हें आधार के बिना चलने का अभ्यास नहीं है, मालंच पर पली हुई लता जैसे उससे गिरकर डोल भी नहीं सकती, वैसे ही और सोचती हूँ कि सारा कलकत्ता ऐसी मालंचविहीन लताओं से भरा पड़ा है क्यों ऐसा है कि जो केवल एक सामाजिक स्तर पर हमें स्वाभाविक लगता या लग सकता है, वह वहाँ पर ऊपर से नीचे तक सर्वत्र लक्ष्य होता है?

मैं क्या लिख रही हूँ, इससे तुम समझ लो कि ठीक हूँ, ठीक बल्कि बहुत अधिक शुश्रूषा पा रही हूँ, और सोच करने का अवसर मुझे बिलकुल नहीं मिलता है। यों बैठी रहती हूँ, और बादलों की तरह विचार तिरते हुए आते और चले जाते हैं; पर जिसे सोचना कहते हैं, वह नहीं हो पाता; कभी विचार की छाया भी चेहरे पर पड़ जाये तो मौसी 'बच्ची' को लेकर इतना 'फ़स' करती है कि बच्ची घबरा जाती है, और कान छू लेती है कि फिर कभी नहीं सोचेगी...।

यों, बच्चों की तरह जीती हूँ! कितना आसान होता है वयस्क परिपक्व मनोवृत्तियों से फिसल कर बच्चों के दृष्टिकोण अपना लेना! लोग जब बूढ़े होते हैं, तो ऐसे ही अनजाने फ़िसल कर बच्चों की मानसिक प्रवृत्तियाँ अख्तियार कर लेते हैं, उन्हें पता भी नहीं लगता कि कब दूसरे बचपन में प्रवेश कर गये। क्या मैं भी बूढ़ी हो रही हूँ?

लेकिन मैं ठीक हो जाऊँगी-जागूँगी-भुवन, तुम कैसे हो? पत्र जल्दी लिखना...

रेखा

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