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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


आइ शैल बी फ़ाउण्ड बाइ द फ़ायर , सपोज़,
ओवर ए ग्रेव वाइज बुक एज बेसीमेथ एज ,
ह्वाइल द शर्ट्स फ़्लैप ऐज़ द क्रासविंड ब्लोज़ ,
एण्ड आइ टर्न द पेज़ , एण्ड आइ टर्न द पेज़,
नॉट वर्स नाउ , ओनली प्रोज़!...

(कितनी अच्छी तरह मैं जानता हूँ कि शरद की लम्बी अँधेरी सन्ध्याओं में मैं क्या करना चाहूँगा-जीवन के नवम्बर में , मेरी आत्मा की दीप्ति फीकी पड़ रही होगी और उसके अनेक स्वरों का संगीत मूक हो रहा होगा! मैं अपनी वय के अनुकूल कोई बड़ी ज्ञान-पोथी लिए आग के निकट बैठा करूँगा, और जाड़ों की हवा कपड़ों को फड़फड़ाया करेगी; और मैं पन्ने पर पन्ना उलटता जाऊँगा-अब काव्य नहीं, केवल गद्य... -ब्राउनिंग)

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रेखा ने कहा, “सारी बात फिर से दुहराओगे, भुवन? मैं कहती हूँ, यह व्यर्थ की बहस है, निष्परिणाम!” थोड़ी देर चुप होकर उसने एक लम्बी साँस ली, फिर बोली-”मैं कहना नहीं चाहती थी, तुम कहला कर छोड़ोगे : तुम्हारे साथ-जीवन का जो-कुछ सुन्दर मैंने जाना है, तुम्हारे साथ; जो-कुछ असुन्दर जाना है विवाह में; और तुम कहते हो....”

उसके स्वर में जो थरथराती तीव्रता थी, उसके धक्के से भुवन क्षण-भर स्तब्ध रह गया; फिर समझाता हुआ बोला, “लेकिन रेखा, विवाह में जो हुआ वह विवाह के कारण ही हुआ, ऐसा तो नहीं है - एक व्यक्ति का दोष....”

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