ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
रेखा ने दर्द से आँखें बन्द कर लीं, जैसे कोड़ा पड़ा हो। फिर उसने पीठ पीछे टेक दी, बड़ी थकी हुई आँखें भुवन की ओर उठायीं, और कहा, “उसकी बात सोचने के लिए तुम्हें मुझे नहीं कहना होगा भुवन! नहीं, बुरा मत मानो, मैं ताना नहीं दे रही।” वह थोड़ी देर रुक गयी। “पर भुवन, तुम समाज की दृष्टि से देखते हो। वह दृष्टि गलत नहीं है, अप्रासंगिक भी नहीं है; निर्णायक भी वह नहीं है। व्यक्ति को दबाकर इस मामले का जो भी निर्णय होगा-गलत होगा-घृण्य होगा, असह्य होगा!”
फिर थोड़ी देर वह चुप रही। फिर आँखें गिराते हुए कहा, “हो सकता है कि मेरा सोचना शुरू से ही गलत रहा हो - पर शुरू से वह यही रहा है। मेरे कर्म का - सामाजिक व्यवहार का नियमन समाज करे, ठीक है; मेरे अन्तरंग जीवन का - नहीं। वह मेरा है। मेरा यानी हर व्यक्ति का निजी।”
“हाँ, मगर दोनों में क्योंकि विरोध है, और अपरिहार्य विरोध है।”
“तो यह भी जीवन की एक न सुलझने वाली गुत्थी रह जाएगी। यह तो नहीं है कि ऐसी गुत्थी कभी हुई न हो - बीसियों पड़ी रहती हैं चारों ओर-एक और सही।”
“लेकिन - लेकिन ऐसा मान लेने से तो कोई रास्ता नहीं निकलता।” कहकर वह झल्लाया-सा मुस्करा दिया क्योंकि वास्तव में यही तो रेखा कह रही थी। फिर वह चुपचाप टहलने लगा। रेखा बैठी रही। वर्षा की टपाटप ही एकमात्र शब्द रह गया।
“तुम थके हो, भुवन?-सोओगे?”
“ऊँ, नहीं।” भुवन ने रुककर रेखा की ओर देखा। “पर तुम-तुम्हें शायद आराम करना चाहिए-”
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