ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
उस रात स्टेशन से गाड़ी जान-बूझ कर छोड़ आने के बाद, भुवन को अपने पर हल्की-सी खीझ आयी थी। क्यों वह गाड़ी छोड़ कर लौट आया? कुछ काम की क्षति नहीं हुई, ठीक है, पर एक निश्चय होता है, अकारण बदलने से इच्छा-शक्ति क्षीण होती है। यों क्षण की प्रेरणाओं पर अपने को छोड़ देने से आदमी शीघ्र ही आँधी पर उड़ता तिनका बन जाता है-क्योंकि प्रत्येक बार संकल्प-शक्ति कुछ क्षीणतर हो जाती है और सहज प्रेरणा की मन्द हवा कुछ तेज होकर आँधी-सी...क्यों नहीं चला गया? रेखा न जाती तो न जाती - रेखा से उसे क्या?
और अपने कमरे में टहलते-टहलते वह सहसा निकल कर चन्द्रमाधव के कमरे में चला गया था। चन्द्र लेट गया था और सोने की तैयारी कर रहा था, पर भुवन ने बिना भूमिका के पूछा था, “चन्द्र, यह रेखा देवी कौन हैं, क्या हैं, - मुझे उसकी बात और बताओ, जो तुम्हें मालूम हो।”
चन्द्र ने एक लम्बे क्षण तक उसकी ओर देखा। फिर कुछ मुस्करा कर कहा था, “क्यों, ठेस खा गये दोस्त? रेखा तुम्हारी केमिस्ट्री की इक्वेशन नहीं जो झट हल कर लोगे-बड़ा पेचीदा मामला है।”
“बकवास मत करो। मुझे उससे कोई मतलब नहीं है। सिर्फ़ एक दिलचस्प चरित्र है-मुझे बौद्धिक कौतूहल है, बस। बौद्धिकता से तुम्हारा छत्तीस का नाता है, यह जानता हूँ, पर तुम जैसा दिलफेंक स्वभाव मुझे नहीं मिला तो नहीं मिला, मैं क्या करूँ?”
“तैश में मत आओ, दोस्त,” चन्द्र ने उठकर बैठते हुए कहा था, “वह कुरसी खींच लो और बैठ जाओ।” भुवन के बैठ जाने पर, “हाँ, अब पूछो, क्या जानना चाहते हो?”
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