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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने कहना चाहा था, “मेरी बात दूसरी है - पुरुष के लिए विवाह और नौकरी विरोधी कैरियर नहीं है और स्त्री के लिए साधारणतया तो होते ही हैं - साथ नहीं चलते।” पर कह नहीं पाया था; गौरा के मुँह की ओर देखते-देखते अचानक कह गया था, “गौरा, आज देखता हूँ तुम मुझसे छोटी अब नहीं हो और अब से बराबर-बराबर बात करूँगा; यों पहले भी बिलकुल छोटी तो नहीं मानता था।”

गौरा एकदम बैठ गयी। उसका चेहरा शान्त हो आया। बोली, “माफ़ी चाहती हूँ, भुवन दा - आप सदैव बड़े हैं।”

भुवन ने निश्चयात्मक स्वर से कहा, “नहीं।” फिर मानो असली विषय पर लौटते हुए, “पर मेरे लिए एक चुन लेना आवश्यक नहीं है। इस मामले में पुरुष दिग्भ्रान्त भी रहे तो चल सकता है - स्त्री को बिलकुल सुलझे ढंग से सोचना पड़ता है - निर्मम होकर।”

गौरा ने ज़िद की, “अच्छा ज़रूरी न सही, आपने सोचा तो होगा?” फिर सहसा अपनी ज़िद पर थोड़ा-सा शरमा कर वह मुस्करा दी।

उस मुस्कराहट से भुवन सँभल गया। स्वयं भी मुस्करा कर बोला, “ठीक सोचा तो नहीं - सोचना तो एक वैज्ञानिक क्रमागत क्रिया है - पर हाँ, यों ही कुछ धारणाएँ तो हैं।”

“क्या?”

“यही कि उसके विरुद्ध मैंने कोई प्रतिज्ञा तो नहीं की। राह चलते यदि कोई उपयुक्त साथी मिला, तो।”

“लेकिन इस देश में राह चलते कुछ नहीं होता, भुवन दा, बड़ी खोज करनी पड़ती है।” गौरा स्पष्ट ही उसे चिढ़ा रही थी।

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