ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
केवल एक बार पिछले कुछ महीने की घटनाएँ - और विशेष कर दो-तीन मास पहले के नौकुछिया-ताल और तुलियन के थोड़े से दिन - एक तीखे मर्मान्तक दर्द की तरह उसे साल गयी थीं। थोड़ी देर वह तिलमिला गया था, फिर लज्जा से भर गया था-इसलिए और भी अधिक कि वह तिलमिलाना भी और सिमटना भी एक और व्यक्ति ने भी देख लिया था। फिर उसने प्रकृतस्थ होकर बात सँभाल ली थी - या सँभालनी चाही थी, क्योंकि कहाँ तक वह सँभल सकी है वह नहीं जानता था...।
गौरा कुछ घण्टों के लिए आयी थी। दिल्ली से बनारस जा रही थी जहाँ उसने कालेज में संगीत-शिक्षिका की नौकरी स्वीकार कर ली थी; सीधी न जाकर उसने भुवन से मिलते हुए जाने का निश्चय किया था। अपनी ओर से तो वह चाहती ही, पर भुवन ने भी बुलाया था : उसने केवल यह सूचना दी थी कि वह बनारस जाएगी और उत्तर में भुवन ने पूछा था कि क्या वह उधर से होकर न जा सकेगी। उसने निस्सन्देह बहुत प्रमाद किया है और गौरा का रोष स्वाभाविक ही होगा, पर रोष न करके उसे देखते जाना भी कम स्वाभाविक न होगा और वह कृतज्ञ भी होगा - गौरा का वह सदैव कृतज्ञ है...।
वह स्टेशन लिवाने गया था। स्टेशन से वे दोनों पहले उसकी प्रयोगशाला में गये थे, वहाँ से होते हुए घर आने की बात तय हुई थी। प्रयोगशाला से लगे हुए भुवन के कमरे में वैज्ञानिक यन्त्रों से घिरे हुए बैठकर गौरा ने बताया था कि वह बनारस नौकरी करने जा रही है; फिर भुवन से यन्त्रों के बारे में पूछने लगी थी। यन्त्रों से कॉस्मिक रश्मियों, और उनसे तुलियन की बात उठना स्वाभाविक थी; गौरा ने सहसा पूछा था, “तुलियन झील सुन्दर है?” और साथ ही जोड़ दिया था, “वहाँ भी आप यन्त्रों से ऐसे ही घिरे बैठे रहते होंगे - प्रकृति के लिए आप को फुरसत ही कहाँ होगी?”
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