ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
अपने जीवन में पहली बार गौरा ने एक पत्र लिखकर फाड़ा; लगभग वही दुबारा लिखा और दुबारा फाड़ दिया। तीसरी बार उसने केवल तीन पंक्तियों का पत्र लिखा; उसे सामने रखकर बहुत देर तक देखती रही। फिर उसने धीरे-धीरे उसे भी चार टुकड़े करके नीचे गिरा दिया। मेज़ पर से लिखाई का सामान इधर-उधर ठेलकर उस पर बाँहें रख उन पर सिर टेक कर बैठ गयी।
काफ़ी देर बाद उसने सिर उठा कर नीचे पड़े कागज़ के टुकड़ों की ओर देखा; पंखे की हवा में दो-एक टुकड़े फड़फड़ा रहे थे, एक पर लिखे हुए दो शब्द कभी दीख जाते, कभी छिप जातेः “मेरे भुवन दा”...गौरा शिथिल भाव से उठी, टुकड़ों को समेट कर छोटी-छोटी चिन्दियाँ कर उसने टोकरी में डाल दी, फिर कमरे में टहलने लगी।
कुछ देर बाद किसी ने दरवाजे पर हलके हाथ से दस्तक दी। गौरा ने किवाड़ खोले; एक चपरासी ने एक पैकेट उसे दिया और कहा, “मेम सा'ब ने भेजा है वाई. डब्लू. से।”
गौरा ने ले लिया, कहा, “अच्छा। हमारा सलाम कह देना।” दरवाज़ा फिर बन्दकर के उसने पैकेट खोला : हलके रंगों की काँच की दो दर्जन चूड़ियाँ थी।
गौरा स्थिर दृष्टि से उन्हें देखती रही। सुन्दर चूड़ियाँ थी। थोड़ी देर बाद गौरा ने उन्हें मेज़ पर रख दिया और फिर टहलने लगी। टहलते-टहलते वह रुकी, दो चूड़ियाँ उठाकर उसने बायें हाथ में पहन ली, बाकी फिर पैकेट में लपेट दी।
थोड़ी देर में पिता बाहर से आये तो गौरा ने कहा, “पापा, मसूरी वापस कब चलेंगे?”
“अब तो एक बारिश हो गयी-अब।”
“नहीं, चलिए-आज ही चलिए।”
“अच्छा, तुम्हारी माँ तो खुश ही होंगी - सामान ठीक कर लो - मेरा तो ठीक ही है, तुम्हारे ही सामान की बात है।”
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