ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
गौरा ने कहा, “नहीं रेखा जी, संगत नहीं करूँगी, आपका गान एकाग्र होकर सुनना चाहूँगी; संगत करने बैठूँगी तो ध्यान बँट जाएगा। आपका आग्रह हो तो पीछे सुना दूँगी। पर मुझे कुछ आता नहीं।”
रेखा ने कहा, “ऐसे ही सही।” फिर चन्द्र से, “लेकिन तुम साक्षी क्यों होंगे-तुम्हें भी तो मिरेकल में भाग लेना चाहिए?”
“मैं? लेकिन मुझे न गाना आता है, न बजाना-”
“तो तुम नाचना।”
“क्यों, वह आना ज़रूरी नहीं है शायद?” कुछ रुक फिर चन्द्र स्वयं ही बोला, “ठीक है, पुरुष हमेशा से नाचता आया है, स्त्रियाँ नचाती आयी हैं।”
“और बिना सीखे नाचता आया है, है न?” रेखा ने और चिढ़ाया।
गौरा ने भी उसी स्पिरिट में कहा, “हमेशा से नाचता आया है, तब यह हाल है, रेखा जी; बन्दर भी शायद तीन महीने में सीख जाता है।”
चन्द्र ने तीखी दृष्टि से गौरा की ओर देखा, मानो कह रहा हो “अच्छा, तुम्हें भी पंख लगे?' फिर बोला, “जी हाँ, पर फ़र्क जानवर-जानवर का नहीं, मदारी-मदारी का है। बन्दर का मदारी और उसका बन्दर जो खेल खेलते हैं, उसके नियम सीधे होते हैं; दोनों पक्षों का एक ही नियम होता है और दोनों उसे जानते हैं। पर हम... भला सोचिए, हम ब्रिज के डमी बन कर अपने सब पत्ते बिछा दें और आप तिपत्ती खेलने लगें तो।”
अब की रेखा ने टोका, “लेकिन है आप की कल्पना में पुरुष भी जुआरी, स्त्री भी; क्यों, नहीं?
|