ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
चाय पीते-पीते चन्द्र को लगा कि वातावरण में कहीं कुछ परिवर्तन है। लेकिन क्या, यह वह नहीं जान सका। उसे केवल यह अनुभव हुआ कि कहीं किसी तरह वह असफल हुआ है, लेकिन इस असफलता की कुढ़न ऐसी थी कि वह यह भी नहीं सोच पा रहा था कि किस बात में वह असफल हुआ है...।
गौरा ने कहा, “रेखा जी, चाय के बाद एक गाना सुनाएँगी?” चन्द्र ने कहा, गौरा जी, पहली ही भेंट में फर्माइश! मुझे तो हिम्मत न होती; और फिर रेखा जी - रेखा जी इज ए डिफिकल्ट वुमन टु नो! लेकिन, ”और वह रुक कर स्थिर दृष्टि से रेखा की ओर देखता रहा, लेकिन डिफिकल्ट हैं इसीलिए शायद पहली बार ही कह देना चाहिए क्योंकि दूसरी बार ही कौन अधिक परिचित हो जाएँगी।”
गौरा ने कहा, “रेखा जी, मेरे कहने का बुरा तो नहीं मानेंगी?”
“गौरा, तुम चन्द्र को अभी नहीं जानती-वह जब नाराज़ होता है तभी कुछ क्लेवर बात कह कर दुनिया से बदला ले लेता है!”
“यानी? यानी आप यह कहना चाहती हैं कि असल में मुझे जानना ही डिफ़िकल्ट है? गौरा जी से मेरा-गौरा जी, आप इनकी बात न मानिएगा-मैं तो जो कुछ हूँ एकदम सतह पर हूँ।”
रेखा ने साभिप्राय कहा, “ओ हो, आज तो आप बहुत बड़ा कनफ़ेशन किये दे रहे हैं, चन्द्र जी।”
चन्द्र ज़रा-सा अप्रतिभ हुआ, पर तुरन्त पैंतरा बदलकर बोला, “हाँ, जो सतह पर है वही सच है; सतह के नीचे कुछ नहीं है, सिर्फ़ धोखा। जो कहते हैं कि यथार्थ कुछ नहीं है, जो गोचर है सब माया है, वे ही तो साबित करते हैं कि माया ही यथार्थ है, सतह ही वास्तविकता है-क्योंकि वह कम-से-कम गोचर तो है, उसके पीछे तो कुछ है ही नहीं!”
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