ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“मैं जानती हूँ।” भुवन के प्रति भक्ति की अभिव्यक्ति आवश्यक है, कुछ ऐसी भावना से रेखा ने कहा, “भुवन जी ने स्वयं मुझे बताया था।”
“अच्छा!” चन्द्र ने किंचित् आश्चर्य दिखाते हुए कहा, “तब तो आप को उनसे ज़रूर मिलना भी चाहिए।”
“पर वह तो मद्रास में हैं न?”
“थीं। आजकल यहीं हैं। उनकी शादी की बात चली थी दो बरस पहले, तब भुवन की सलाह से मद्रास चली गयी थीं संगीत सीखने। वहाँ से लौट आयी हैं।”
“ओः।”
फिर थोड़ी देर मौन रहा। नयी दिल्ली में डेविको के नीचे ताँगा रुका; चन्द्र ने कहा, “यहाँ चाय पिएँगे, काफ़ी तो दिल्ली की अच्छी नहीं होती।”
“जो आप चाहें।”
बैठकर चन्द्र को सहसा याद आया, गौरा की बात से असली बातचीत बीच ही में रह गयी थी। यों गौरा की बात रेखा को बताना भी कम ज़रूरी नहीं था, पर सबसे ज़रूरी था यह जानना कि रेखा और भुवन के बीच स्थिति क्या है - दोनों कितने गहरे में हैं...।
|