ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
सहसा भुवन ने कम्बल हटाया, मृदु किन्तु निष्कम्प हाथों से रेखा के गले से बटन खोले, और चाँदनी में उभर आये उसके कुचों के बीच की छाया-भरी जगह को चूम लिया। फिर अवश भाव से उसकी ग्रीवा को, कन्धों को, कर्णमूल को, पलकों को, ओठों को, कुचों को...और फिर उसे अपने निकट खींच कर ढँक लिया - सालोमन का गीत उस घिरे वातावरण में गूँजता रहा।
आई स्लीप, बट माइ हार्ट वेकेथ; इट इज़ द वॉयस आफ़ माइ बिलवेड दैट नाकेथ, सेइंग : ओपन टु मी, माइ सिस्टर, माइ लव, माइ डव, माइ अनडिफ़ाइल्ड, फ़ार माइ हेउ इज़ फिल्ड विथ ड्यू, एण्ड लाक्स विथ द ड्राप्स आफ़ द नाइट...
. (मैं सोती हूँ, पर मेरा हृदय जागता है; मेरे प्रियतम का स्वर दस्तक देकर कहता है : खोलो, मेरी सगी, मेरी प्रिया, मेरी पंडुकी, मेरी अक्षता; मेरे बाल रात के ओस-बिन्दुओं से भींग गये है...)
भुवन ने अपना माथा रेखा के उरोजों के बीच में छिपा लिया : उनकी गरमाई उस के कानों में चुनचुनाने लगी : फिर उसके ओठ बढ़कर रेखा के ओठों तक पहुँचे, उन्हें चूमकर प्रतिचुम्बित हुए।
माइ बिलवेड इज़ माइन, एण्ड आइ एम हिज़, ही फीडेथ एमंग द लिलीज़...
(प्रियतम मेरा है, मैं उसकी हूँ, पद्मवन में वह विहार करता है।)
क्यों भुवन के ओठ शब्दहीन हो गये हैं, स्वरहीन हो गये हैं, क्या वह गीत के ही बोल स्वरहीन हिलते ओठों से कह रहा है या कुछ और कह रहा है?
“रेखा, आओ...”
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