ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
आरम्भ उत्साह से हुआ था, पर फिर मानो स्वर अनमने हो गये। फिर भी वह गाती रही, फिर गान रुक गया। रेखा ने कहा, “भुवन, क्षमा करो, वह उदासी मेरी अपनी है, गान की नहीं। पर और एक सुनाऊँगी थोड़ी देर बाद।”
भुवन उठा। “चलो, धूप में टहलें।”
रेखा भी खड़ी हो गयी। “लेकिन सूर्यास्त के पीछे नहीं दौडूँगी। वैसे इस ऊँचाई पर दौड़ भी नहीं सकती।”
भुवन ने कहा, “तुम्हें तकलीफ़ तो न होगी रेखा? इतनी ऊँचाई पर काफ़ी कष्ट भी हो सकता है।”
“नहीं, नहीं-नहीं!” रेखा ने दृढ़ता से प्रतिवाद किया, मानो दृढ़ता से हृद्गति का भी नियन्त्रण हो जाता हो।
दोनों झील से कुछ ऊँचाई पर, सम-तल आगे-पीछे टहलने लगे।
दूर कुलियों का स्वर सुनायी दिया।
रेखा ने कहा, “अच्छा भुवन, फिर सही - रात को - आज तो पूर्णिमा होगी न?”
“सच? हाँ, आज-कल में ही होनी चाहिए। अच्छा आओ तम्बू की जगह ठीक करें पहले”
तम्बू भी लग गये घासवाली पहाड़ी पर, झुरमुट से आगे बड़ा तम्बू रहने के लिए, झुरमुट से इधर जहाँ से नाला फूटता था उसके निकट एक छोलदारी सामान और खानसामा के लिए, दूसरी रसोईघर की। दिन छिपते खानसामा ने चाय भी तैयार कर दी। भुवन ने कहा, “इसी समय कुछ डिब्बे-बिब्बे खोलकर खा लिया जाये, रात को और बनाने की ज़रूरत है क्या?”
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