ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“जी-मैं काम्पिलमेंट्स रिटर्न करने आयी हूँ - पहलगाँव तक पहुँचाने आयी हूँ - तुलियन तक जाने को तैयार होकर अगर आप कहेंगे। यह मेरा प्रदेश है, आप मेहमान हैं।” फिर सहसा गम्भीर होकर कहा, “आपका हर्ज तो नहीं होगा? मैं अभी लौट सकती हूँ - रास्ते में ही कहीं उतर सकती हूँ।”
“इसका जवाब तो मैं दे चुका।”
“क्या?”
“पिछली भेंट का मेरा आखिरी वाक्य।”
विषाद की एक हल्की-सी छाया रेखा के चेहरे पर दौड़ गयी। फिर वह मुस्करा दी। “हाँ, सो तो हूँ।”
अगली सीट भुवन की थी। उसने कहा कि रेखा वहाँ बैठ जाये, पर रेखा ने आग्रह किया कि वहाँ कोई बैठेगा तो भुवन, नहीं तो दोनों साथ बैठेंगे पहली सीट पर; वहीं वे बैठे।
पामपुर - अवन्तिपुर के खुले प्रदेश के पास से मोटर बढ़ती चली। भुवन ने कहा, “यही सब केशर का प्रदेश है न?”
“हाँ। इसी से इसे काश्मीर कहते हैं - भारत में तो और कहीं होता नहीं। और पामपुर असल में पद्मपुर है।”
भुवन ने कहा, “बंगालिन, अभी कश्मीर से तुम्हारा नाता छूटा नहीं?”
रेखा हँस दी। “जो असम्पृक्त हैं, उनका सब देशों से नाता है!”
“तो, तुम्हारे लिए सब जगहें बराबर हैं?”
|