ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
लेकिन सुबह वह अकेला था। जब उसकी नींद खुली, तो पलकों पर एक भारीपन था, मन पर कुछ ऐसा भाव कि वह नींद में उठकर चला है, और कहीं अपरिचित जगह पर जाकर जाग कर भटक गया है, फिर सहसा रात की घटना का चित्र स्पष्ट हो गया, उसने जाना कि रेखा जहाँ थी वहाँ नहीं है और वह बहुत गहरी नींद सोया होगा। पर उठकर भीतर जाकर रेखा को देखने का भी साहस उसे न हुआ। वह वहीं से बाहर जाकर सीधे बुरूस के झुरमुट में चला गया।
अनमने-से भाव से उसने बुरूस का बड़ा-सा गुच्छा तोड़ा। फिर सहसा सचेत होकर उसे देखा। नहीं, जीवन में कोई चीज़ दोबारा नहीं होती है। कम-से-कम कोई सुन्दर चीज़ नहीं। जो दोबारा होती है वह सुन्दर नहीं होती। फूल का गुच्छा उसने फेंक दिया। झुरमुट में और गहरा घुसने लगा।
क्या वह लौट कर जाएगा - रेखा के पास जाएगा? उसके सामने होगा?
पुराणों में बहुत कहानियाँ हैं। स्त्री कभी नहीं माँगती; और जब माँगती है - प्रत्याख्याता स्त्री ने कभी पुरुष को क्षमा नहीं किया, सदैव शाप दिया है; और पुराणों में कहीं यह ध्वनि नहीं है कि वह शाप अनुचित है। कहीं बल्कि यह स्पष्ट कहा है कि स्त्री माँगे तो 'न' कहने का अधिकार पुरुष को नहीं है, शील विरुद्ध है। माँग के औचित्य-अनौचित्य से परे...। सब पुराणों का रोमांटिसिज़्म है? लेकिन पुराण बिलकुल रोमांटिक नहीं थे - उनकी स्वच्छन्दता प्रकृति की स्वच्छ, स्वस्थ आत्म-निर्भरता की स्वच्छन्दता थी, जिसमें स्त्री भी उतनी ही स्वायत्त है जितना पुरुष; बल्कि अधिक, क्योंकि उस पर प्रकृति का दायित्व है। कहीं भी प्रकृति के शासन में अस्वीकार का अधिकार नर का नहीं है; सर्वत्र मादा निर्णायिका है - क्योंकि वह माँ है...।
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