ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
किस चीज़ ने उसकी नींद तोड़ दी - चाँद की रोशनी ने, या कि उस पर बादल की छाया ने।
भुवन ने आँखें खोली। नहीं, बादल की छाया नहीं, रेखा की छाया थी।
रेखा उसके सिरहाने बैठी थी, उस पर झुकी हुई उसका चेहरा देख रही थी।
उसने आँखें खोली हैं, यह देखकर रेखा ने अपने दोनों हाथ उसके माथे पर रख दिये।
हाथ बिलकुल ठण्डे थे।
“तुम ठिठुर रही हो, रेखा!” कह कर भुवन उठने को हुआ, पर रेखा ने उसका माथा दबा कर उसे रोक दिया। भुवन ने कुहनी से अपना कम्बल उठाकर सरका कर रेखा के घुटनों पर उढ़ा दिया, फिर उसके दोनों हाथ अपने हाथों में पकड़ कर कम्बल के अन्दर खींच लिए। पूछा “क्या बात है, रेखा?”
रेखा नहीं बोली।
भुवन ने फिर पूछा, “रेखा क्या बात है?”
“तुम-हो, तुम सचमुच हो! यू आर रीयल!” रेखा का स्वर इतना धीमा था कि ठीक सुन भी नहीं पड़ता था।
भुवन ने कहा, “आइ'म वेरी रीयल, रेखा। पर ठहरो, पहले तुम्हें कम्बल उढ़ा लूँ।”
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