ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
सुन्दर रंग - बिना आलोक के रंग - लेकिन बिना आलोक के रंग हो कैसे सकते हैं? नहीं, बिना रंग का आलोक, तीक्ष्ण आलोक।
भुवन उठकर बैठ गया। सूर्य निकल आया था। लपक कर वह भीतर गया - कुरसी पर रेखा नहीं थी। तो वह पहले उठ गयी - उसने भी भुवन को न उठाया होगा - उसे पहले जागना चाहिए था।
वह बाहर आया। देखा, सूटकेस खुला है। उसकी कमीज़, पैंट, तौलिया और अन्य आवश्यक सामान बाहर एक ओर को रखा है। और वह सोता ही रहा।
भीतर जाकर मुँह-हाथ धोने की उसकी इच्छा न हुई। उसने तौलिये में सब सामान डाला और नीचे झील की ओर चला।
सामने जहाँ धूप पड़ रही थी, वहाँ पेड़ों पर जहाँ-तहाँ बड़े-बड़े लाल गुच्छे चमक रहे थे। भुवन ने पहचाना - बुरूस के फूल। मुँह-हाथ धोकर वह तोड़कर लाएगा...।
बिना शीशे के हजामत बनाना ऐसा कठिन नहीं था। आँख बन्द कर लेने से अपना चेहरा देखने में मदद मिलती है। प्रक्षालन करके उसने कपड़े बदले, उतरे कपड़े तौलिये में लपेट कर वहीं रख दिये और लम्बे कदम फेंकता हुआ बुरूस के गुच्छे की ओर चला।
दो बड़े-बड़े गुच्छे उसने तोड़े। फिर दोनों को देखकर एक वापस पेड़ में अटका कर रख दिया, एक ले लिया।
जहाँ तौलिया छोड़ गया था, उधर वह लौट रहा था कि दूर, कुछ ऊपर से उसे रेखा का स्वर सुनाई पड़ा। रेखा गा रही थी। भुवन ठिठक कर सुनने लगा; कभी स्वर उस तक पहुँचते, कभी हवा उन्हें उड़ा ले जाती :
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