ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“अच्छा, मैं आता हूँ।”
“लेकिन जा कहाँ रहे हो? बताओ तो।”
“भई, कुछ सामान-वामान तो मुझे चाहिए, आ तो गया।”
“मेरे पास सभी कुछ फ़ालतू है, बिस्तरा, कम्बल।”
भुवन ने एक मुदित-सी खीझ के साथ कहा, “अच्छा, एक टूथ-ब्रश तो ले आऊँ!”
रेखा हँस पड़ी। फिर बोली, “मैं भी साथ चलूँ?”
“नहीं, मैंने चाय का आर्डर दिया है, मैं अभी लौट कर आया।”
रेखा मान गयी। भुवन चलने लगा तो बोली, “पर हम यहाँ ठहर नहीं रहे हैं, यह उदास जगह है। आगे कहीं भी चलो - मुझे छोड़ आना होगा।”
भुवन चला गया। रेखा भीतर बैठकर कापी में कुछ लिखने लगी। उसे नहीं मालूम हुआ कि भुवन कब लौटा; सहसा उसका स्वर सुन कर चौंकी। भुवन मैंनेजर से कह रहा था : “हम लोग आगे जा रहे हैं सात-ताल, अभी चले जाएँगे चाय के बाद, आपका शुक्रिया।”
“दैट्स आल राइट, सर! चाय आ गयी है।”
दोनों ने एक साथ ही प्रश्न किये।
“ले आये टूथ-ब्रश?”
“क्या लिख रही हैं - कविता?”
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