ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
तल्ली-ताल में मोटर से उतर कर भुवन ने एक नज़र नैनीताल की झील को देखा-तीसरे पहर की धूप एक तरफ़ की पहाड़ी पर ऊँचे पर थी, झील घनी छाँह में थी और आकाश ऐसा दूर था मानो किसी गहरी तलहटी में से ऊपर देख रहे हों, तो उसने जाना कि यहाँ तक आने का निश्चय तभी हो गया था जब उसने मुरादाबाद का टिकट लिया था। मुरादाबाद में जब रेखा ने पूछा था, “सुनिए, आप सचमुच यहाँ से लौट जाएँगे?-अब मुझे पहुँचा ही आइये न?” तब जैसे यह प्रश्न उसके मन में पहले पूछा जा चुका हो, ऐसे ही बिना अचम्भे के उसने कहा था, “हो तो सकता है।”
और रेखा ने चिढ़ाया था, “तो मैन फ्राइडे अभी से सकने की बातें सोचने लगा जादू भूल कर?”
“भई, अभी दिन-दुपहर है, जादू का वक़्त अभी कहाँ हुआ है?”
मुरादाबाद से वे बरेली होकर नहीं गये थे। रामपुर गये थे और वहाँ से मोटर में काठगोदाम होते हुए नैनीताल - तीसरे पहर ही यहाँ पहुँच गये थे। रास्ते में रेखा धीरे-धीरे न जाने क्या गुनगुनाती आयी थी, बोली बहुत कम थी; एक अलौकिक दीप्ति उसके अलस शान्त चेहरे पर थी। बीच-बीच में वह आँखें बन्द कर लेती और भुवन समझता कि सो गयी है, पर सहसा उसकी पलकें उस अनायास भाव से खुल जाती जिससे स्वस्थ शिशु की आँखें खुलती हैं और वह फिर कुछ गुनगुना उठती...। भुवन ने कहा था, “थोड़ा ऊँघ लीजिए, रात भर जागी हैं” तो सहसा सजग होकर बोली थी, “अभी? ऊँघने के लिए तो सारा जीवन पड़ा है, थोड़ा-सा जाग ही ली तो क्या हुआ!” और एक कोमल मुस्कान से खिलकर उसे निहारने लगी थी। फिर भुवन ऊँघ गया था...।
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