ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
लेकिन भुवन ने कुछ अधिक बारीक हिसाब लगाया था। रेखा को स्टेशन तो उसने सात से पहले पहुँचा दिया; पर नयी दिल्ली जाकर लौटने में उसे अधिक देर लगी यद्यपि खाना भी उसने लगभग नहीं खाया, छूकर छोड़ दिया। स्टेशन पहुँचा तो नौ में दो मिनट थे। उसने सोचा कि रेखा शायद प्लेटफ़ार्म पर चली गयी हो; पहले सीधा उधर गया, फिर हड़बड़ा कर वेंटिंग-रूम आया। रेखा उद्विग्न-सी बाहर खड़ी राह देख रही थी। उसने कहा-”मैं पहले उधर गया था-देर हो गयी-चलिए-आप प्लेटफ़ार्म पर क्यों न।”
“मैं बाकायदा बिदा किये बिना नहीं जाऊँगी, क्या आप नहीं जानते थे? गाड़ी में बैठ जाती और आप न आते तो।”
उसकी बात में उलाहना नहीं था, केवल सच की सीधी उक्ति थी।
गाड़ी की सीटी सुनायी दी। भुवन ने कहा, “गाड़ी तो अब....”
“जाने दीजिए। नहीं मिलेगी। मैं घबड़ायी हुई नहीं दौडूँगी।” सहसा वह हँस दी, जिससे तनाव एकाएक शिथिल हो गया।
भुवन ने कहा, “अब?”
“वापस वाई. डब्ल्यू तो मैं नहीं जाऊँगी। अगली गाड़ी कब जाती है?”
“पता करें। मेरे खयाल में तो रात में और नहीं जाती, तड़के शायद-”
“वही सही, रात वेंटिग रूम में काट दूँगी। आप जाइये; पर सबेरे कैसे आएँगे-या मत आइएगा, अभी थोड़ी देर में चले जाइएगा, बस।”
भुवन ने कहा, “इस परम्परा का निर्वाह तो तब होगा जब रात-भर यहीं बातें की जायें, और तड़के गाड़ी पकड़ी जाये। एक प्रमाद जब हो जाये, तब यही उसका उपाय होता है।”
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