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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


वह पैर पर बालू थोप कर घर बनाने लगा। पैर निकाल कर गुफा का मुँह काट कर सीधा किया, फिर ऊपर न जाने क्या बनाया, फिर सामने जगह समान की, चारों ओर मेंड़ बनायी, सीढ़ियाँ, फिर एक ओर को दूसरा घर, फिर सड़क...साथ-साथ धीरे-धीरे बोलता जाता : “यह घर बन गया - यह आँगन - यहाँ बगीचा लगेगा - ढूँढ़कर आर्किड लाकर लगाने होंगे - यह चार दिवारी है - यहाँ फ्राइडे रहेगा - यहाँ...”

रेखा मुग्ध दृष्टि से उसे देख रही थी। सचमुच इस भुवन को उसने देखा नहीं था, जाना नहीं था, अनुमान से भी नहीं। वैज्ञानिक डाक्टर भुवन के अन्दर एक गम्भीर संवेदनाशील और खरा मानव छिपा है, यह तो उसने जाना था, लेकिन उस निश्छल ऋजुता के नीचे इतना भोला, इतना कौतुक-प्रिय शिशु-हृदय भी है, यह उसकी सजग दृष्टि भी न देख पायी थी...उसे अपना बचपन याद आया - कलकत्ते के उस घिरे हुए हरे-भरे उद्यान में खेलते हुए उसने माता-पिता का स्नेह पाया था, अगाध-स्नेह और उस निधि के लिए वह चिर-कृतज्ञ है, लेकिन जिस तरह उस स्नेह का स्थान कुछ और नहीं ले सकता, उसी तरह वह अपार स्नेह भी एक समयवस बालक के कौतुक-भरे सख्य का स्थान नहीं ले सकता...। बड़ों के स्नेह से घिरी हुई वह अकेली ही रह गयी थी - और उस अकेलेपन ने उसे पकाकर स्वयं भी 'बड़ा' बना दिया था। एक ओर वह पाती थी कि उसके कौतुक-जगत् के बीच में एक दीवार है, दूसरी ओर वह देखती थी कि स्वयं उसके स्नेह-सम्पृक्त परिपक्व रूप, और उसके कौतुक-वेष्टित शिशु-रूप के बीच में भी एक दीवार खड़ी थी...न सही अधिक कुछ, न सही प्यार; यह यन्त्रणा और ग्लानि और अपमान ही सही जो उसने पाया; पर बचपन में अगर उसे दो-एक वर्ष ही ऐसा कोई बाल-साथी मिल गया होता तो कम-से-कम आज उसके पीछे ऐसा कुछ होता जिसमें वह सम्पूर्णता देख सकती, अपने जीवन की निष्पत्ति देख सकती...एक भाई आया था, पर तब वह आठ वर्ष की हो चुकी थी, भाई छः वर्ष का हुआ तब तक तो वह यों भी वह कौतुक-युग पार कर चुकी थी और उसके बाद के स्वप्न दूसरे थे - कितने भिन्न! और फिर तीन वर्ष बाद भाई मर गया था। माता-पिता के दिल टूट गये थे, और उसके स्वप्नों की दूसरी खेप भी नष्ट हो गयी थी...।

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