ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन स्तब्ध रह गया। उसकी समझ में कुछ न आया। फिर रोशनी एक बड़ी पैनी कटार-सी उसे भेद गयी , वह सब समझ गया; उसने चाहा कि रेखा को कन्धे से लगा कर धीरे-धीरे थपथपा दे...। पर वह अपने स्थान से हिल भी नहीं सका, वहीं खड़े-खड़े उसने पूछा, “तो-तो आप ने विवाह क्यों किया था” पूछना वह यह चाहता था कि 'हेमेन्द्र ने आपसे विवाह क्यों किया था?' पर प्रश्न को इस रूप में वह न रख सका।
“क्योंकि-मेरा चेहरा उस मित्र से मिलता था!” रेखा का स्वर एक अजीब पतली अवश चीख-सा हो गया था।
भुवन जहाँ था, वहीं बैठ गया। थोड़ी देर स्तब्ध बैठा रहा, निर्निमेष आँखों से, भरे हुए पानी में, बुझे हुए आकाश का प्रतिबिम्ब देखता। फिर वह धीरे-धीरे उठा, रेखा के पास जाकर उसने बिना कुछ कहे रेखा की बाँह पकड़ी, मृदु किन्तु दृढ़ हाथ से उसे उठा कर खड़ा किया, और बाँह पर सहारा देता हुआ फाटक की ओर ले चला। दो-तीन कदम चलते-चलते रेखा का शरीर सहसा कड़ा पड़ गया - उसने बाँह छुड़ा ली और कहा, “मैं ठीक हूँ, भुवन जी!” उसका स्वर भी अपने सहज स्तर पर आ गया था, यद्यपि अब भी आविष्ट था।
फाटक के पास उसके रुककर कहा, “भुवन जी, मैं क्षमा चाहती हूँ।”
भुवन ने कहा, “नहीं, रेखा जी, दोष मेरा है, मैं दुराग्रह...”
रेखा ने धीरे-से उसके हाथ पर हाथ रख कर उसे चुप करा दिया, मानो कह रही हो, “रहने दीजिए, मैं जानती हूँ कि दोष किस का था।”
फिर उसने कहा “मैं बिल्कुल ठीक हूँ। आप अब कुछ पूछना चाहें तो पूछ लीजिए। मैं अभी बता सकती हूँ। फिर शायद न बता सकूँ। या सकूँ तो भी ये बातें बार-बार याद करने की नहीं हैं, आप मानेंगे।”
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